Thursday, August 13, 2009

सपनो की छाया तले.....


सपनो की छाया तले हम जी रहे हैं ।
आज अपना ही लहू हम पी रहे हैं ।
नेह मर चुका, अर्थ की सत्ता बढी है,
सत्य के होठों को हम सब सी रहे हैं।
सपनों की छाया तले हम जी रहे हैं।

था कभी वह वक्त, सत्य पूजा जाता।
झूठ उस के सामने था, तड़्फड़ाता।
आज घुटकर मर रहा रोता अकेला,
चल रही है साँस ,आँसू पी रहे हैं।
सपनों की छाया तले हम जी रहे हैं।

कौन अब इसको बचाएगा धरा पर?
सत्य का खोजी इसे जब मारता हो।
झूठ जब चड़कर, सिंहासन पर हो बैठा,
न्याय की उम्मीद में क्यों जी रहे हैं?
सपनों की छाया तले हम जी रहे हैं।

Monday, August 3, 2009

तुम क्यूँ जिन्दा हो......


दूसरों का दुख देख कर
आँख तब तक नही रोती
जब तक कोई पीड़ा
तुम्हारे भीतर
पहले से नही सोती।

इस समुंद्र के किनारे
रेत में क्या खोज रहे हो
उसे नही पाओगे।
समय की लहरें
हमेशा की तरह उसे बहा कर
अपने साथ ले गई होगीं
कहीं दूर, बहुत गहरे में,
किसी पत्थर के नीचे पड़ी या दबी
वह सिसकियां भर रही होगी।
क्युंकि अब समुंद्र में अक्सर
तूफान उठता रहता है।
जिसका शोर,जिस का बहाव,
कहीं ठहरने नही देता।
अत: उस के होने का एहसास
नही हो पाता।
जबकि जानता हूँ
वह मौजूद है।
बस बाहर वालों को ,
कभी नही दिखती।

वह तुम्हारे भीतर भी है।
मेरे भीतर भी है।
उसके भीतर भी है ।
लेकिन सब अन्जान बनें,
आपस मे बतियाते रहते हैं।
सब ठीक ठाक है-
एक दूसरे से कहते हैं।

उसे जानना चाहते हो तो-
जरा भीतर झाँकों
जान जाओगें।
तुम क्युं जिन्दा हो
जान जाओगे।