आदत
आदत नही
भूलने की
भूलें सताती हैं
कह्ते हैं ...
वो भटके राही को
राह दिखाती हैं
रोज नये दुश्मन
बन रहें हैं दोस्त.
आदते क्या सौंगाते
हमें दे के जाती हैं....
तन्हाई
तन्हा चलना
मुसीबत बन रहा है।
बहारें कब आई ..
कब गई....
पता भी ना चला।
राह चलते जो मिला
जी भर के ..
उसी ने है छला।
मजबूरी
सर्दी और महँगाई
दोनों
गरीब को
सुकड़ने पर
मजबूर करती है।
पता नही ये
पूँजी
पतियों से
क्यों डरती है....
स्पष्ट कथ्य कहती रचित क्षणिकायें।
ReplyDeleteपूंजीपति इनको गुलाम बना के जो रखते हैं ...
ReplyDeleteलाजवाब ...
आपने लिखा....हमने पढ़ा....
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 13/07/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
बहुत बढ़िया.....
ReplyDeleteतीनों कविताएँ सुन्दर..
अनु
तीनों खूबसूरत हैं..
ReplyDeleteपूंजिपतियों से तो सभी डरते हैं...
ReplyDeleteसुंदर भाव...
यही तोसंसार है...
सर्दी और गर्मिa गरीब को तो दोनों ही सिकुड़ने को मजबूर करती है,? बड़ा प्रशन है ये की ये पूंजीपतियों से क्यों डरती है,कहीं ये भी पूंजीपतियों का भ्रष्टाचारी सरकार के साथ कोई मिलाजुला प्रपंच तो नहीं.तीनो ही सुन्दर कवितायेँ
ReplyDeleteबहुत सुंदर क्षणिकाएं । 'मजबूरी' बहुत ही अच्छी लगी।
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