Wednesday, March 19, 2014

शैतानों की दुनिया में ... साधू बन कर जीना.. क्या समझदारी है??



ना मालूम क्यों..
हम सब बदलना चाहते हैं..
बदलाव चाहते हैं...
सिर्फ अपनें को बिना बदले!

शायद .....
भीतर ये एहसास जगता है।
बदलाव...
बहुत कुछ भीतर मार देगा..
तोड़ देगा मेरे अंह की मीनारों को..
तोड़ देगा उन संबधों को...
जिन्हें मैं अपना मान कर जी रहा था।
तोड़ देगा उन जहर भरे प्यालों को...
जिन्हें मैं अमृत समझ कर पी रहा था।

जानता हूँ......
मेरे बदलनें से...
कुछ भी नहीं बदलेंगा ....
मेरे  आस-पास।
वह यथावत रहेगा....
झरना वैसे ही बहेगा...
दुश्मनों के साथ मिलकर फिर...
मेरा अपना वैसे ही मुझे छलेगा।

दुनिया कहती है....
जीवन में परिवर्तन जरूरी है...
जीना एक मजबूरी है...
उन पलों में जब ....
आस-पास आग लगी होती है..
आँख बिना आँसूओं के रोती है...
भावना शुन्य में खोती है।
तब भीतर कोई पूछता है---
शैतानों की दुनिया में ...
साधू बन कर जीना..
क्या समझदारी है??
कोई जवाब नही सूझता...
कोई आवाज नही आती...
सोचता हूँ...
अब सोचना ही छोड़ दूँ।
जिस आईने में ...
मेरे चहरे के दाग..
लोगो के भीतर लगी आग..
नजर आती है...
ऐसे आईनें को ही तोड़ दूँ।
शायद फिर
मेरा ये मन ..
भटकनें से संभलें।

ना मालूम क्यों..
हम सब बदलना चाहते हैं..
बदलाव चाहते हैं...
सिर्फ अपनें को बिना बदले!