Saturday, July 12, 2014

चलो! अब कहीं ... और चलते हैं..




 चलो!
 अब कहीं ...
और चलते हैं।
इन घाटों पर
पानी तो है...
लेकिन 
सब ....
प्यासे रहते हैं।
सब की ..
नौकाएं टूटी हैं
पतवार बिना...
बहती रहती हैं।
कैसे करें...
भरोसा इन पर
जो अक्सर 
खुद से हो हारा।
अपने लिये
स्वयं निर्मित करें
विचारों की 
ये नित कारा ।
छोड़ों बन्धन..
सारे तोड़ों..
जो सत्य धरा पर
खरा ना उतरे
कोई हो...
अपना या पराया
सम भाव से
जो नित मुकरे।
ऐसो संग हम क्यूँ..
हामी भरते हैं।
 चलो!
 अब कहीं ...
और चलते हैं।