जाग मन अब नींद से, आया प्रभात ।
पक्षियॊं का शोर अब चहो ओर है ।
पर संभल, नयी नही यह भोर है ।
रोशनी ने छेड़ दी शहनाईयाँ,
छुप के बैठा हरिक मन में चोर है ।
खुद को कचौटा करती है यह बात ।
जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।
भोर की जिज्ञासा, सभी के मन बसी ।
सदा दूसरों की लगामें, हमनें कसी ।
झाँक भीतर अपनें, कभी देखा नही,
आईनों में देख मुख, आती हँसी ।
चाहता कौन सुनना, दूसरों की बात ।
जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।
चल रहा कब से धरा का बोझ बन ।
ठूँठ-सा, लिए नग्नता खड़ा है तन ।
जान कर भी तू बना, अंजान है,
कर रहे तेरा हरण, तेरा जतन ।
किसको देना चाह रहा, यहाँ मात ।
जाग मन अब नींद से, आया प्रभात ।
बोझ नित बढ़ता, जो तेरा पग बढ़ा ।
शब्द बंधन हो गया, जिसको गड़ा ।
पलट पड़ती कानों मे, शहनाईयाँ,
पर्वतों के सामनें, जो शब्द जड़ा ।
चल गया जो तीर फिर आए ना हाथ ।
जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।
पढ़ कर आनंद आ गया।बहुत सुन्दर लिखा है.
ReplyDeleteबोझ नित बढ़ता, जो तेरा पग बढ़ा ।
शब्द बंधन हो गया, जिसको गड़ा ।
पलट पड़ती कानों मे, शहनाईयाँ,
पर्वतों के सामनें, जो शब्द जड़ा ।
चल गया जो तीर फिर आए ना हाथ ।
जाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।
मर्म को छू लेने वाली रचना
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
बहुत उत्तम रचना !
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन संदेश प्रसारित करती रचना-एकदम सफल!!
ReplyDeleteजाग मन अब नीदं से, आया प्रभात ।
-बहुत उम्दा. बधाई.
परमजीत, आपकी रचनायें दिन प्रति दिन सशक्त होती जा रही हैं. लिखते जायें ! आपकी लेखनी बहुतों को स्पर्श कर रही है -- शास्त्री जे सी फिलिप
ReplyDeleteहिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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