यह एक बहुत पुरानी रचना है जो कभी बचपन में लिखी थी।वही आज यहाँ लिख रहा हूँ।वास्तव में यह वह पहली रचना है जो कभी किसी छोटी-सी पत्रिका में प्रका्शित हुई थी और जिस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी वह शायद साल दो साल बाद बंद भी हो गई थी।लेकिन फिर भी इस के प्रकाशित होनें के बाद ही मुझे कविताएं लिखने का शोक पैदा हुआ था। जो आज तक बरकरार है।
ये धरती के छंद
जिनकी गति है मंद
चलते हैं आहिस्ते-आहिस्ते
मुख में गीत गाते
गम के हो या खुशी के
बस एक पंक्ति दोहराते
अंधे विवेक का मानव
अंधियारों के डिम्ब जाल में
उतर गया है या
फँस गया
बेचारा!
बहुत सुंदर........
ReplyDeletekhoobsurat...
ReplyDeleteorsam...
behtreen..
bahut sunder...
अंधे विवेक का मानव
ReplyDeleteअंधियारों के डिम्ब जाल में
उतर गया है या
फँस गया
" great thoughts, composed beautifully"
Regards
verynice post. thanks
ReplyDeleteअपने बहुत ही अच्छा लिखा है ......सुंदर भाव हैं......मन को छु गये हैं
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है. बधाई.
ReplyDeleteअरे वाह! बचपन हो या पचपन, एक अच्छा कवि अच्छा कवि होता ही है.
ReplyDeleteआहा! वाह भई वाह क्या कविता है!
ReplyDeleteउम्र के हिसाब से भाव काफी गहन हैं। अच्छी कविता।
ReplyDeleteवाकई बेचारा है......
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भाव हैं, धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत सुंदर........पूत के पांव पालने में ही दिख गये थे. :)
ReplyDelete