हम वहीं हैं हम जहाँ थे इक कदम बढ़ पाये ना।
आँख का पानी तो सूखा सुख के बादल छाये ना।
हक के लिये जिसके, यहाँ इंसान देखो लड़ रहा,
दिल मे रहता है सभी के ये समझ उसे आये ना।
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जब भी
आकाश की ओर देखता हूँ
उसे मुस्कराता ही पाता हूँ
ना मालूम किस बात पर
वह इस तरह मुस्कराता है ?
जरा तुम भी सोचना....
मैं भी सोच रहा हूँ.......
वह किस घर मे समा सकता है??
यहीं सोच-सोच कर
अपना सिर नोंच रहा हूँ।
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यदि मेरे बस मे होता
ये मंदिर,मस्ज़िद,
गिरजे ,गु्रूद्वारे।
इस धरती से हटवा देता।
उस राम का,खुदा का,
निरंकार और जीसस का,
एक सुन्दर -सा घर
तेरे दिल मे बनवा देता।
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bahut sunder rachna ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, सारगर्भित भाव अच्छा लगा !
ReplyDeleteओशो ने पूछा है,ज़रा सोचो,जिस प्रकृति को तुम कहते हो कि उसने इतना विराट् संसार बनाया,वह स्वयं कितना विराट् होगा। इतना विराट् स्वरूप तुम्हारे इस छोटे से पूजास्थल में कैसे समाएगा?
ReplyDeleteइतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए आभार आपका!
ReplyDeleteक़तरे में दरिया होता है
दरिया भी प्यासा होता है
मैं होता हूं वो होता है
बाक़ी सब धोखा होता है
बहुत सुंदर संदेश देती आप की यह कविता धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत खूब .... लाजवाब बात कही है .... काश सब ऐसा सोच लें ...
ReplyDeletebehatar soch par adharit apki rachana,sunder hi nahi sampreshaneeyata se bhi bharpoor hai.
ReplyDeleteबाली जी ,
ReplyDeleteअज्ज ते बस कमाल ही है .....
उस राम का खुदा का
निरंकार और जीसस का
एक सुन्दर सा घर
तेरे दिल में बनवा देता ....
क्या बात है ....
आशिक हो तो आप जैसा ....!!
लाजवाब ............
ReplyDeleteबेमिसाल.........
हार्दिक शुभकामनाएं...........
चन्द्र मोहन गुप्त
बहुत सुन्दर कृति है
ReplyDeleteबहुत - बहुत शुभकामना
सभी रचना एक से बढ़कर एक. एक नया सन्देश देती हुई.
ReplyDeleteदेर से आने के लिये क्षमा चाहती हूंम कई दिन से कम्प्यूटर खराब था।
ReplyDeleteहमेशा की तरह दिल से लिखी गयी सुन्दर अभिव्यक्तियां। बधाई\
बहुत खूब .... acchi lagi.
ReplyDeletebahut khoob.. :)
ReplyDeleteयही सोच सोच कर अपना सिर नोच रहा हूं। सुन्दर्।
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