Pages

Friday, October 5, 2012

मुक्तक माला - १०



उसका पता मालूम है 
फिर भी भटकता रहता हूँ।
नदी नालों में जल धार-सा, 
ना जानें बन क्यूँ बहता हूँ ?
ये तलाश जन्मों जन्म से 
हर शख्स देखो कर रहा ,
खुद से ही हो कर बेखबर ,
ये विरह कैसा सहता हूँ ?

____________________________________

विरह की आग हर हाल में जलायेगी,
कुछ तो ऐसा है जो खाली रहता है।
दुनिया की सारी खुशीयां चाहे बटोर लो,
दिल का इक कोना दर्द सहता है।
 ____________________________

हरिक दर्द की दवा नही होती ।
हरिक आँख विरह में नही रोती ।
हर तरह  के लोग हैं जमाने में,
पत्थरों की मूरतें कहाँ नही होती।

__________________________________________

11 comments:

  1. ढूढ़ रहा हूँ, ढूढ़ रहा था,
    याद अभी भी, यहीं मिला था।

    ReplyDelete
  2. बहुत खूब ,बहुत खूब..
    बहुत बढ़िया ...
    :-)

    ReplyDelete
  3. बेहतरीन मुक्तक.

    बहुत सुंदर प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  4. हर तरह के लोग हैं जमाने में,
    पत्थरों की मूरतें कहाँ नही होती।...........सुंदर प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  5. हर तरह के लोग हैं जमाने में । सही कहा ।
    बहुत भावप्रवण प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  6. zindgi ke rang hazaar duniya hai amir logo ki isliye humne apna name pankaj kathuria amir rakh liya hai

    ReplyDelete
  7. सच कहा आपने हमारा जीवन एक अनंत व अतृप्त तलास ही तो है. सुंदर प्रस्तुति।

    ReplyDelete

आप द्वारा की गई टिप्पणीयां आप के ब्लोग पर पहुँचनें में मदद करती हैं और आप के द्वारा की गई टिप्पणी मेरा मार्गदर्शन करती है।अत: अपनी प्रतिक्रिया अवश्य टिप्पणी के रूप में दें।