अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते है।
कभी आँख का आँसू
कभी बादल-बिजली
तन्हा स्याह रातें मे
खौफ-जदा़ करते साये
मेरी नींदें चुरा कर
गुम हो जाते हैं।
अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते हैं।
याद करते रहते हैं
अपने बीते पल को
जो कभी साथ-साथ
गुजारे थे।
तुम दोड़े चले आते थे
आधी रातों को
हम जब भी कभी
पुकारे थे।
वो खुशनुमा पल
हमारे जीवन के
इतनी जल्दी
गुजर कयूँ जाते हैं।
अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते हैं।
सुख के साधन पीड़ा बाटें।
ReplyDeleteअपने ही जब गैर हुए जाते है,,,
ReplyDeleteRecent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,
आज के दौर में तो अपने ही ज्याद गैर हैं,सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteगैर तो अक्सर अपने ही होते हैं ... उन्ही का गैर होना ज्यादा सालता है ...
ReplyDeleteअपनों का गैर होना...........आह । बहुत भावुक करने वाली रचना ।
ReplyDeleteकुछ अधूरी सी आस
ReplyDeleteअपने ही गैर हुए जाते हैं ...
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचना ..
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