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Tuesday, March 19, 2013

अपने ही जब गैर हुए....


 

अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते है।

कभी आँख का आँसू 
कभी बादल-बिजली
तन्हा स्याह रातें मे 
खौफ-जदा़ करते साये
मेरी नींदें चुरा कर 
गुम हो जाते हैं।
अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते हैं।

 याद करते रहते हैं 
अपने बीते पल को
जो कभी साथ-साथ 
गुजारे थे।
तुम दोड़े चले आते थे 
आधी रातों को 
हम जब भी कभी  
पुकारे थे।
वो खुशनुमा पल 
हमारे जीवन के
इतनी जल्दी 
गुजर कयूँ जाते हैं।
अपने ही जब गैर हुए जाते हैं,
दिले-दर्द बनकर ठहर जाते हैं।



8 comments:

  1. आज के दौर में तो अपने ही ज्याद गैर हैं,सुन्दर प्रस्तुति.

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  2. गैर तो अक्सर अपने ही होते हैं ... उन्ही का गैर होना ज्यादा सालता है ...

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  3. अपनों का गैर होना...........आह । बहुत भावुक करने वाली रचना ।

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  4. अपने ही गैर हुए जाते हैं ...
    बहुत भावपूर्ण रचना ..

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