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Thursday, March 19, 2015

मेरी डायरी का पन्ना -३

क्या प्रेम की परिभाषा अब बदल गई है ? 
क्या आज प्रेम की जरूरत खत्म हो गई है ? 
आज जहाँ भी देखो...आपसी मनमुटाव.....द्वैष....ईर्ष्या और अंहकार ग्रस्त हमारा मन......हर रिश्ते को तोड़ मरोड़ कर मथ डालता है। हम हरेक रिश्तों के सुखद पलों की जगह ऐसे पलों को तलाश ही लेते हैं....जो आपसी दूरी को बढ़ाने मे सहायक होते हैं। आज हमारी मानसिकता ऐसी क्यों होती जा रही है ? शायद यह विचारने की हमे फुर्सत ही नही है.......या हो सकता है बहूदा तो हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नही है।यदि हमारा ध्यान जरा -सा भी इस ओर जाएं तो संभव है.....हम सचेत होने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं और शायद हमारे में से बहुत से लोग ऐसी मानसिकता से छुटकारा पाने में सफल भी हो जाएं।


लेकिन सवाल यह है कि हमारे मन मुटाव का कारण क्या है ?.. इस का सही जवाब तो यही है कि हमारा व्यवाहर मे कुछ ऐसी कमी जरूर है जो दूसरों को आहत करती है.....जिस कारण यह मनमुटाव पैदा होता है ।वह आर्थिक और व्यवाहरिक दोनों तरह की हो सकती है।जैसे अपने से बड़ो को आदर ना देना या उन की बातों को अनसुना कर देना  या फिर उनसे बहस कर के उनकी बात को गलत साबित करना आदि।यह बात नही है कि उनकी हरेक बात सही ही होती है.....लेकिन हमारे विरोध करने का ढंग कुछ ऐसा होता है जिस से वे आहत होते हैं। यदि हम अपने विरोध करने के ढंग को प्रेमपूर्ण बना सके तो यह समस्या हल हो सकती है।

क्या प्रेम की परिभाषा अब बदल गई है ?
यह प्रश्न हमारे मन मे क्यों उठता है....इस विषय पर कुछ कहना बेमानी होगा। क्यों कि आज हम आपसी  संबधों को लेकर इतने खिन्न हो चुके हैं कि कोई भी रिश्ता ज्यादा देर स्थायी नही रह पा रहा।कारण साफ है.....आज के सभी रिश्ते नाते अर्थ पर अधारित हो चुके हैं। आज हम हरिक व्यवाहर ,हरिक रिश्ते को अर्थ से तोलते हैं। बहुत कम रिश्ते ऐसे रह गए हैं जिन मे निस्वार्थ प्रेम की कोई झलक नजर आती है। आज हर इन्सान मात्र अपने रिश्तों की सलीब अपने-अपने कांधों पर उठाए चल रहा है।जब की प्रेम  और आनंद मानव का शाश्वत स्वाभाव है। फिर क्यों हम इसे तिलांजली दे कर अपने जीवन से इसे बाहर रखने का प्रयत्न कर रहे हैं?
शायद इसे तिलांजली देनें  का एकमात्र कारण हमारा स्वार्थ या अंहकार है। हमे  अक्सर छोटी-छोटी बातों पर बहुत जल्दी चोट लग जाती है और इस चोट लगने का एकमात्र कारण है हमारा अंहकार। यही छोटी छोटी चोटें बाद मे बहुत बड़ी हो कर हमारे सामने रिश्तों मे दरार डालने का काम करती हैं।आज भले ही हम दुनिया या समाज की नजर मे कितने ही भलेमानुस बनें.....लेकिन हम सभी जानते हैं कि हम वास्तव मे क्या है ? जबकि प्रेम पूर्ण समर्पण का नाम है।यहाँ हम दूर के रिश्तों की बात को छोड़े.....आज जो हमारे परिवारिक रिश्ते हैं क्या हम उनके प्रति भी समर्पण की भावना रखते हैं ? ......और यदि कोई परिवार का सदस्य ऐसी भावना रखता है तो क्या हम भी प्रतिकार रूप मे वैसी ही भावना उस परिवारिक सदस्य के प्रति रखते हैं?....कभी आत्ममंथन करके देखो......ऐसे मे जो जवाब हमारे भीतर से आएगा.....वह हमें शर्मसार तो करेगा.....लेकिन इस भागम भाग की दुनिया में ज्यादा देर तक जीवित नही रह पाएगा।

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