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Saturday, September 12, 2015

ऐ मेरे मन....

किसी के कहने पर कुछ कहना ...
किसी दूसरे की भावनाओ मे बहना..
अपने भीतर के प्रकाश को  कमजोर कर जाता है।
ऐ मेरे मन....
दूसरो को छोड़..
अपने भीतर के प्रकाश पर विश्वास कर...
वही तुझे रास्ता दिखा सकता है..
दूसरो का प्रकाश भटका सकता है ।


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मैने जब भी अपने को छोड़..
दूसरे पर विश्वास किया....
वह देर सबेर हमेशा टूटा है।
जीवन भर ....
वैसे तो साथ चलते हैं ...
ऐसे लोग..
लेकिन ...
मौका मिलने पर उसी अपने ने लूटा है।

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ऐ मेरे मन..
मुझे ये कहते शर्म नही आती..
मौका मिलने पर..
मौका छोड़ कर...
मै भी अक्सर पछताता हूँ।
अपने को सताता हूँ...
शायद जिन्दगी से  हारी बाजी को..
खुद की ईमानदारी बताता हूँ।
लेकिन भीतर जानता हूँ..
इसे ईमानदारी नही कहते..
लेकिन...
 सच मानने को कौन तैयार होता है?
वो ऐसा ही सच्चा है...
इसी लिये जीवन भर रोता है ।

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Thursday, August 27, 2015

डायरी के पन्नें....८

                          
   

                            भीतर का संवाद

यदि हम अपने जीवन की घटनाओं को देखे तो एहसास होता है कि जितना धोखा अपने निकटतम देते हैं उतना धोखा हम बाहर वालों से नही खाते। वैसे तो प्रत्येक के जीवन में ऐसी सैकड़ों घटनाएं होगी...लेकिन मैं यहाँ उदाहरणार्थ एक घटना का जिक्र करना चाहूँगा-- मेरे किसी अपने नें ही मेरे अति निकटतम लोगों को विश्वास मे लेकर मेरे घर आश्रय लिआ...मुझे कहा गया कि इस से मुझे आर्थिक लाभ मिलेगा और सहयोग मिलेगा। लेकिन परिणाम बिल्कुल विपरीत रहा...मुझे अर्थ लाभ तो क्या होना था इसके विपरीत आर्थिक हानी हुई...उन महाशय जी ने मेरे ही घर से मेरी एक प्रोपर्टी के कागज चुराये और जालसाजी कर के उन्हें बेच दिया....जबकि इस प्रापर्टी की किस्ते भी मैं उसी के जरीए जमा करवा  रहा था..प्रोपर्टी बेचने के बाद भी उसने मुझे भनक नहीलगनें दी और तीन साल तक मुझ से किस्ते जमा करवाने के नाम पर धन लेता रहा ....अब इस घट्ना के बाद मेरी मनोस्थिति ऐसी थी कि ना तो मैं उस की रिपोर्ट पुलिस को कर सकता था और ना ही उसे किसी प्रकार का दण्ड दे सकता था। क्योकि यदि पुलिस को रिपोर्ट करता तो उसकी सरकारी नौकरी भी जाती और जेल भी होती...ऐसे में उसके बच्चों को इस का फल भुगतना पड़ता...।अंतत: बच्चो की खातिर मैं चुप बैठ गया। उसे आश्रय देनें के बाद मुझे मानसिक रूप से इतना अधिक प्रताड़ित व अपमानित होना पडा...और धन की हानी उठानी पड़ी कि अब मुझे किसी पर विश्वास ही नही हो पाता। मैनें ऐसी घटनाओं से बचनें के लिए बहुत मनन किया...क्यों कि समाज में रहते हुए ना चाहते हुए भी हमें ऐसी परिस्थियॊ का सामना तो अवश्य करना ही पड़ेगा। मनन करनें पर इस परिणाम पर पहुँचा की यदि किसी की सहायता करनी ही पड़ जायें तो सब से पहले स्वयं को सुरक्षित कर लें....आर्थिक व कानूनी रूप में....कुछ धन सिक्योरिटी के रूप में भी रखवा लें... तभी किसी अपनें की मदद करें। यहाँ एक ओर बात भी ध्यान में रखनें योग्य है कि यह भी जाँच परख ले कि जिसकी आप सहायता करनें जा रहे हैं उन का किन लोगों के साथ उठना -बैठना है। यदि ऐसा व्यक्ति किन्हीं कुप्रवॄति व कुसंस्कारी लोगों के प्रति झुकाव रखता है और आप के कहने पर भी उन से संबध तोड़ने को तैयार नही है तो ऐसे व्यक्ति से दूर ही रहें क्योंकि ऐसा व्यक्ति आपको कभी भी परेशानी में डाल सकता है ..आप ऐसे व्यक्ति की सहायता का विचार ही त्याग दें। तब आप इसका परिणाम देखेगें कि .... आपके सहायता ना करनें पर ....ऐसा व्यक्ति यदि अपने उन कुसंस्कारी व कुप्रवृति वालें लोगों के साथ मिल कर आप को परेशान करनें का प्रयास करता है तो समझ लें कि संगत का असर हो चुका है । यदि वह ऐसा नही करता तो समझना चाहिए कि शायद कभी भविष्य में उसमें सुधार होने की कोई संभावना की जा सकती है।...तब आप प्रतिक्षा करें ...और सुधार होनें पर उसकी मदद अवश्य करें। क्यूँकि यह एक समाजिक व पारिवारिक कृत है...और इसी प्रकार के निर्णय लेनें पर एक अच्छे समाज व परिवार की नींव पड़ सकती है।


Wednesday, July 29, 2015

डायरी के पन्नें.....७

                    
         

                            भीतर का संवाद

भय का मूल कारण अंहकार ही होता है। जब तक ये अंहकार किसी भी रूप में भीतर जीवित रहता है भय से मुक्त नही हुआ जा सकता। मन की चंचलता और अंहकार की दृढ़ता जीवन में जीव को बहुत नाच नचाती है। लेकिन ये इन्सान की विवश्ता है कि उसे मन की चंचलता और अंहकार की दृढ़ता को पोषित करना ही पड़ता है। जीवन का आनंद व सुख-दुख इसी अवस्था में अनुभव किया जा सकता है। ऐसा नही है कि मन की चंचलता और अंहकार की दृढ़ता के बिना नही रहा जा सकता....रहा जा सकता है.....लेकिन उस अवस्था को प्राप्त करना हमारे हाथ में नही है। इस अवस्था को प्राप्त कराना प्राकृति प्रदत ही माना जा सकता है। वैसे जीव के प्रयत्न से भी इसे पाया तो जा सकता है ...लेकिन तब वह अवस्था स्थाई नही रह पाती....या यूँ कहे क्षणिक या पल-भर के लिये तो इसका अनुभव किया जा सकता है.....लेकिन इस अवस्था में स्थाई नही रहा जा सकता। वैसे एक बात निश्चित व स्वानुभव महसूस की जा सकती है कि इस क्षणिक अवस्था के प्रभाव के कारण जीव जीवन पर्यन्त सजग तो रहता ही है। जब-जब भी जीवन में माया व परिस्थित्यों की आँधी आती है तब- तब जीव के भीतर कोई सजग रहनें का एहसास जरूर करा देता है।

Friday, June 26, 2015

डायरी के पन्नें...६

                           
                         भीतर का संवाद

जीवन भी एक अजीब पहेली है..इन्सान जिनके सुख के लिये जीवन भर संघर्ष करता रहता है वह जिनके लिये  घर-बार जमीन जयदात को जोड़ता रहता है, वही लोग एक दिन उस इन्सान को भूल जाते हैं, जिन्होनें जीवन भर के संघर्ष के बाद सब साधन उनके लिये जुटाये हैं। वह इन्सान साधनों के सामने उन्हें बौना नजर आने लगता है...साधन बड़े हो जाते हैं और उन्हें निर्मित करने वाला गौण हो जाता है। उन्हें उस इन्सान से कोई सरोकार नही रहता....उसके प्रति उनके क्या कर्तव्य हैं इस का बोध उन्हें अपनें भीतर महसूस ही नहीं होता। ऐसे में इन्सान अपने जीवन के आखिरी पड़ाव को जीता हुआ सोचता है उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया...इससे बेहतर होता यदि वह उस समय के वर्तमान पलों का आनंद लेता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता। सोचता हूँ मेरे जनक कितनी गहन सोच, विचार-चेतना के धनी थे, उनके सचेत करने पर भी मैं मूर्ख ही बना रहा। उनका यह कहना बहुत गहरा अर्थ रखता था कि यदि इन कर्मो मे प्रवृत होना है तो प्रतिफल की अभिलाषा को मन में जनमनें ही मत देना....नही तो अंतत:सिवा पछतावे व दुख के कुछ भी हाथ नही आयेगा। चलो, कोई बात नही....जो बीत गई सो बात गई, जहाँ जागो वही सवेरा समझो। लेकिन सोचता हूँ क्या इस मोह-माया से इन्सान इतनी सहजता से मुक्त हो पाता है ?.....शायद मुक्त हो सकता है....। शायद नही हो सकता...। ...या फिर एक नये संघर्ष की तैयारी में लग जाता है....जिसमें अंतत: उसकी पराजय निश्चित है,....क्या ये सच नही है ? आज एक नीतिज्ञ महापुरूष के जीवन की एक घटना याद आ रही है...जिसने अपने विरोधियों को समाप्त करनें के लिये उन्हीं के साथ बैठ कर विषपान कर लिआ था...उस नीतिज्ञ के साथ उसके विरोधी भी समाप्त हो गये थे। समझ नही पा रहा उस नीतिज्ञ की इस नीति को विजय के रूप में देखूँ या पराजय के रूप में...??




Monday, May 4, 2015

डायरी के पन्नें....५



                           भीतर का संवाद
 
हुदा लोग कहते हैं कि ईमानदार आदमी सुखी रहता है...यह बात सही है...लेकिन इस ईमानदारी का परिणाम जब अपने परिवार पर असर दिखानें लगता है तो ईमानदारी डगमगानें लगती है...अपनों के तानें ही खींज़ पैदा करने लगते हैं। कारण साफ है...आप शैतानों में रह कर साधुता नही साध सकते....वे आपकी लगोंटी भी उतार कर ले जायेगें या यह कहे कि आप ईमानदार रह कर मर तो सकते हैं लेकिन आज जी नही सकते। क्यूँ कि जब हमारे जीवन यापन करने का वास्ता ही बेईमान लोगों से पड़ता है तो ऐसे में ईमानदार रहने का भ्रम पालना अपने को धोखा देना मात्र ही है। बहुत समय पहले कहीं पढ़ा था...कि ईमानदारी की एक सीमा होती है...प्रत्येक व्यक्ति एक सीमा तक ही ईमानदार रहता है...कुछ लोग एक लाख रूपय की ईमानदारी रखते हैं तो कुछ लोग दस लाख पर पहुँचते ही ईमानदारी को तिलांजली दे देते हैं...इसी तरह की ईमानदारी आज हमें देखने को मिलती है।लेकिन इसका ये मतलब नहीं की ईमानदार लोगों का अकाल है....वे हमारे समाज में मौजूद हैं...भले ही गिनती मात्र के हो....लेकिन समाज मे उनकी कहीं कोई पूछ नही है। वे लोग आत्मिक सतोषी तो हैं...लेकिन शायद ही कभी किसी की नजर में वे आते हैं..। ऐसे लोग गुमनाम अंधेरों में पैदा होते हैं और मर जाते हैं ...किसी को कोई खबर नही होती। समाज में अर्थ की पूजा होती है...चरित्र की नही...क्योंकि हमारी मानसिकता ही ऐसी बन चुकी है.....नाम और अर्थ के प्रति हमारी आसक्ति ने एक ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है जिसे अब तोड़ा नही जा सकता..आज हम पूरी तरह गुलाम हो चुके हैं ऐसी मानसिकता के...ऐसे में किसी ईमानदारी की लहर के पैदा होनें ही कामना करना अपने को धोखे में रखना ही है। हाँ, एक नयी मानसिकता के जन्म से ईमानदारी का मरता हुआ बीज फिर से अंकुरित हो सकता है...वह है यदि ईमानदारी का मुल्य अर्थ से बड़ा माना जाये। ईमानदारी को सम्मान मिलें। लेकिन ऐसा कभी हो पायेगा अब...?   ...असंभव-सा लगता है। लेकिन अभी भी उम्मीद पर दुनिया कायम है...उम्मीद कभी नही मरती...शायद कभी वह सुबह जरूर आयेगी। हरेक के भीतर ऐसी इक लौं सदा जलती रहती है....जो राख से ढकी रहती है लेकिन भीतर ही भीतर एक छोटा -सा अंगार सुलगता रहता है।जो अनूकूल समय पा कर प्रकाशमय हो ही जाया करता है।


Wednesday, April 22, 2015

डायरी के पन्नें...४

                         भीतर का संवाद

जब अपनेपन का एहसास मरने लगता है तब महसूस होता है कि इन्सान किन के लिये अच्छे -बुरे काम  करके सुख सुविधायें जुटाता रहता है। तब अंतर्मन स्वयं के प्रति ही विद्रोह करने लगता है।अपनी मूर्खता पर इतना ज्यादा खींज पैदा कर लेता है कि फिर उसका मन किसी पर विश्वास करनें की कल्पना मात्र से भयभीत हो जाता है। मन यह माननें को तैयार ही नही होता कि कोई उसके प्रति ईमानदारी दिखा सकता है। लेकिन इसमे मन का क्या दोष है..?..मानव स्वाभाव है कि वह अपनें किये गये छोटे-बड़ें किसी भी कृत के प्रति नकारत्मक सोच को स्वीकार कर ही नही पाता। क्यों कि वह जानता है कि जो कृत अन्य को सहज व सरल लग रहा है उसे करने के लिये उसने क्या कुछ खोया है यह अन्य को कभी नजर ही नही आता या यह कहे कि कोई उसे महत्व ही नही देना चाहता। उन्हें मात्र उपलब्ध साधन ही नजर आता है...ऐसे मे यदि वह साधन सामुहिकता के समय किसी विशेष व्यक्ति मात्र की मेहनत का नतीजा भी हो तो सभी उस पर अधिकार मानने लगते हैं...जबकि वे जानते हुए भी अन्जान बनें  रहना चाहते हैं और ये माननें को तैयार ही नही होते कि वे मात्र लालच व लोभ के कारण ऐसा कर रहे हैं। अंतत:यही लालच और लोभ दूसरे के प्रति द्वैष व स्वार्थ की भावना को जन्म देता है। हम सदैव दूसरों से अपने अधिकार की बात करते हैं लेकिन स्वयं कभी यह विचारने की कोशिश नही करते कि हमने दूसरों को कितना अधिकार दिया है। आज जो सामाजिक व परिवारिक टूटन आ रही है उसका मूल कारण भी शायद यही है। हम अपनों के साथ रहते हुए भी अपनें कृत इतनी गोपनीयता से करते हैं कि जब कभी वे कृत उजागर होते हैं तो साथ रहने वाला अपने को ठगा-सा महसूस करता है....सब को समझ है कि ये सब गलत है लेकिन आज जो ताना-बाना समाज व परिवार का बन चुका है वह ईमानदारी से किसी कृत को करने ही नही देता, यदि कोई करने कि कोशिश करे तो उसे परेशानीयाँ उठानी पड़ती है कि दुबारा वह इस तरह कार्य करनें की कल्पना मात्र से भी भयभीत हो जाता है। पता नही हम किस दिशा में जा रहे हैं...भविष्य मे समाज कैसा होगा परिवार कैसा होगा....कई बार तो लगता है...शायद परिवार होगा ही नही...सभी अकेले-अकेले होगें....और यदि कभी साथ दिखेगें भी तो किसी निजी स्वार्थ की पूर्ति के प्रति वशीभूत होकर साथ-साथ नजर आयेगें।


Thursday, March 19, 2015

मेरी डायरी का पन्ना -३

क्या प्रेम की परिभाषा अब बदल गई है ? 
क्या आज प्रेम की जरूरत खत्म हो गई है ? 
आज जहाँ भी देखो...आपसी मनमुटाव.....द्वैष....ईर्ष्या और अंहकार ग्रस्त हमारा मन......हर रिश्ते को तोड़ मरोड़ कर मथ डालता है। हम हरेक रिश्तों के सुखद पलों की जगह ऐसे पलों को तलाश ही लेते हैं....जो आपसी दूरी को बढ़ाने मे सहायक होते हैं। आज हमारी मानसिकता ऐसी क्यों होती जा रही है ? शायद यह विचारने की हमे फुर्सत ही नही है.......या हो सकता है बहूदा तो हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नही है।यदि हमारा ध्यान जरा -सा भी इस ओर जाएं तो संभव है.....हम सचेत होने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं और शायद हमारे में से बहुत से लोग ऐसी मानसिकता से छुटकारा पाने में सफल भी हो जाएं।


लेकिन सवाल यह है कि हमारे मन मुटाव का कारण क्या है ?.. इस का सही जवाब तो यही है कि हमारा व्यवाहर मे कुछ ऐसी कमी जरूर है जो दूसरों को आहत करती है.....जिस कारण यह मनमुटाव पैदा होता है ।वह आर्थिक और व्यवाहरिक दोनों तरह की हो सकती है।जैसे अपने से बड़ो को आदर ना देना या उन की बातों को अनसुना कर देना  या फिर उनसे बहस कर के उनकी बात को गलत साबित करना आदि।यह बात नही है कि उनकी हरेक बात सही ही होती है.....लेकिन हमारे विरोध करने का ढंग कुछ ऐसा होता है जिस से वे आहत होते हैं। यदि हम अपने विरोध करने के ढंग को प्रेमपूर्ण बना सके तो यह समस्या हल हो सकती है।

क्या प्रेम की परिभाषा अब बदल गई है ?
यह प्रश्न हमारे मन मे क्यों उठता है....इस विषय पर कुछ कहना बेमानी होगा। क्यों कि आज हम आपसी  संबधों को लेकर इतने खिन्न हो चुके हैं कि कोई भी रिश्ता ज्यादा देर स्थायी नही रह पा रहा।कारण साफ है.....आज के सभी रिश्ते नाते अर्थ पर अधारित हो चुके हैं। आज हम हरिक व्यवाहर ,हरिक रिश्ते को अर्थ से तोलते हैं। बहुत कम रिश्ते ऐसे रह गए हैं जिन मे निस्वार्थ प्रेम की कोई झलक नजर आती है। आज हर इन्सान मात्र अपने रिश्तों की सलीब अपने-अपने कांधों पर उठाए चल रहा है।जब की प्रेम  और आनंद मानव का शाश्वत स्वाभाव है। फिर क्यों हम इसे तिलांजली दे कर अपने जीवन से इसे बाहर रखने का प्रयत्न कर रहे हैं?
शायद इसे तिलांजली देनें  का एकमात्र कारण हमारा स्वार्थ या अंहकार है। हमे  अक्सर छोटी-छोटी बातों पर बहुत जल्दी चोट लग जाती है और इस चोट लगने का एकमात्र कारण है हमारा अंहकार। यही छोटी छोटी चोटें बाद मे बहुत बड़ी हो कर हमारे सामने रिश्तों मे दरार डालने का काम करती हैं।आज भले ही हम दुनिया या समाज की नजर मे कितने ही भलेमानुस बनें.....लेकिन हम सभी जानते हैं कि हम वास्तव मे क्या है ? जबकि प्रेम पूर्ण समर्पण का नाम है।यहाँ हम दूर के रिश्तों की बात को छोड़े.....आज जो हमारे परिवारिक रिश्ते हैं क्या हम उनके प्रति भी समर्पण की भावना रखते हैं ? ......और यदि कोई परिवार का सदस्य ऐसी भावना रखता है तो क्या हम भी प्रतिकार रूप मे वैसी ही भावना उस परिवारिक सदस्य के प्रति रखते हैं?....कभी आत्ममंथन करके देखो......ऐसे मे जो जवाब हमारे भीतर से आएगा.....वह हमें शर्मसार तो करेगा.....लेकिन इस भागम भाग की दुनिया में ज्यादा देर तक जीवित नही रह पाएगा।

Friday, February 27, 2015

मेरी डायरी का पन्ना -२



 डायरी का पन्ना - १
पिछ्ला भाग पढ़े।
हम सभी जी रहे हैं लेकिन हम मे से कितने होगें जो किसी लक्ष्य को लेकर जी रहे हैं।शायद यह प्रतिशत बहुत कम होगा।समय के साथ साथ परिस्थिति वश हमारी दिशा प्रभावित होती रहती है।हम ना चाहते हुए भी लाख कोशिश करें लेकिन परिस्थितियां हमारे रास्ते को बदलने मे अक्सर सफल ही रहती हैं।कई बार अनायास ही हमारे जीवन में ऐसा कुछ घट जाता है कि हमारी सभी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं।तब ऐसा लगता है की हमारे किए कराए पर पानी फिर गया।ऐसे समय मे हमारी दिशा ही बदल जाती है।उस रास्ते पर चलना ही मात्र हमारी मजबूरी बन कर रह जाती है।ऐसे समय मे हम मे भले ही  साहस हो या ना हो....लेकिन हम ऐसे कदम उठाने से भी नही हिचकिचाते जि्न्हें हम सामान्य स्थिति मे कदापि उठाने की हिम्मत नही कर सकते थे।इसी संदर्भ मे एक घटना याद आ रही है।

मुझे याद है जब हम एक सरकारी कवाटर मे सपरिवार रहा करते थे...पहले वह मकान पिता के नाम से अलाट था.....लेकिन पिता के बीमार होने के कारण ..पिता को मेडिकल रिटार्यर मेंट लेनी पड़ी और अपनी नौकरी और कवाटर बड़े भाई के नाम करना पड़ा।.उन्हीं दिनो बड़े भाई की शादी कर दी गई और शादी के कुछ दिनो के बाद ही समस्याओ ने आ घेरा।नयी नवेली के आते ही हमे घर से विदाई लेने का जोर दिया जाने लगा...ऐसे मे मजबूर होकर एक बड़ा कर्ज उठाना पड़ा.....अपना ठौर ठिकाना बनाने के लिए।उस समय को याद कर आज भी सिहर उठता हूँ....समझ नही पाया कि कैसे उस समय अपने बुजुर्ग पिता के सहारे यह कर्ज उठाने की हिम्मत कर सका था।उस समय सभी अपनों ने मदद करने के नाम पर अपने हाथ उठा दिए थे।लेकिन उस समय कर्ज एक मजबूरी बन गया था।आज लगता है यह अच्छा ही हुआ।इसी बहानें साहस ना होते हुए भी एक ऐसा कदम उठा सके ।लेकिन इस कदम को उठाने के बाद अपनों के प्रति जो लगाव था वह छिन्न-भिन्न हो गया।वह बात अलग है कि समय व ऊपर वाले की कृपा से उस कर्ज से बाद मे निजात पा ली थी।उस समय यह महसूस हुआ था कि जीवन का लक्ष्य......परिस्थितियां किस प्रकार परिवर्तन कर देती हैं।किस प्रकार ऐसी घटनाएं हमे साहस की ओर धकेल देती हैं।

जहाँ तक मैं महसूस करता हूँ हमारा मुख्य लक्ष्य आनंद और सुख की प्राप्ती ही होता है। हम जीवन भर सिर्फ आनंद की तलाश मे ही रहते हैं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि हम इर्ष्या व द्वैष के वशीभूत हो कर अपने आप को और दूसरो को परेशानीयों मे डाल लेते है।वास्तव मे इस के मूल मे हमारा अंहकार और लालच ही छुपा होता है।यदि हम इन दोनो पर अंकुश लगा लें तो हमें आनंद की प्राप्ती सहज सुलभ होने लगेगी।लेकिन यह कार्य जितना सरल दीखता है उतना है नही।इसके लिए स्व विवेक या आध्यात्म का सहारा लेना ही पड़ेगा। तभी इस से बचा जा सकता है।

अधिकतर हम आनंद को बाहर खोजते हैं......कारण साफ है हमारा प्रत्यक्ष से ही  पहला परिचय होता है।इस लिए हमारा सारा जोर बाहरी साज सामान जुटानें मे ही लगा रहता है।बाहरी साधनों में भी सुखानुभूति व आनंदानूभूति होती है। लेकिन यह साधन सर्व सुलभ नही हैं।अर्थ प्राप्ती के लिए अनुकूल परिस्थितियां व व्यापारिक बुद्धिमत्ता होनी जरूरी है। अत: इस कारण सभी इस से लाभवंतित नही हो सकते।

दूसरी ओर आध्यात्म का रास्ता है। जहाँ बिना साधन भी आनंद की प्राप्ती की जा सकती है।लेकिन इसके लिए भीतर की ओर मुड़ना पड़ता है।अंतर्मुखी होना पड़ता है।लेकिन यहाँ बाहरी आकर्षण हमे भीतर जाने से रोकता है।लेकिन निरन्तर अभ्यास से इस मे सफलता पाई जा सकती है।लेकिन एक बात सत्य है कि दोनों ही आनंद प्राप्ती के साधन कम या ज्यादा अर्थ पर निर्भर करते हैं।बिना साधनों के कठोरता से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले अब नही के बराबर ही रह गए हैं।हम अपनी परिस्थियों के अनुसार ही अपना रास्ता चुन सकते हैं।

Tuesday, January 27, 2015

डायरी के पन्नें - !

जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं कि हम जो होते हैं उस से एकदम विपरीत सोचनें लगते हैं।जब कि हम खुद भी नही जानते कि ऐसा क्युं कर होता है।हमारा मन ,हमारा दिल, दिमाग अचानक हमारे लिए अनायास अंनजान सा क्युं हो जाता है। जब कि हम सदा ऐसा मानकर चलते हैं कि हम अपने आप को, अपने विचारों को, अपनी सोच को,बहुत अच्छी तरह समझते हैं।मैनें इस बारे मे बहुत सोचा और पाया कि वास्तव में हमारे भीतर यह परिवर्तन अचानक नही होता.....कहीं बहुत भीतर यह सोच या यूं कहे कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हे हम स्वयं भी नही समझ पाते। हमारे अचेतन मन में बैठे रहते हैं.....लेकिन यह प्रकट नहीं हो पाते....क्यों कि जब तक इन्हें कोई बाहरी संबल या यूं कहे सहारा नही मिलता...यह मुर्दा पड़े रहते हैं।लेकिन किसी दिन अचानक इन का प्रकट हो जाना और ऐसा आभास दे जाना कि अब तक जो तुम सोच रहे थे या विचार रखते थे ,वह सब हमारा अपना ओड़ा हुआ एक आवरण मात्र था।जो शायद हम दुनिया को दिखाने के लिए या यूं कहे दुनिया को धोखा देनें के लिए ओड़े रहते हैं, असल में एक झूठा आवरण मात्र ही होता है।इस आवरण के हटते ही हम अपने आप को एक दूसरे आदमी के रूप में पाते हैं।जो एक बहुत गहरी सुखानुभूति या बहुत गहरे सदमे का कारण बन सकती है।इस अवस्था में पहुँचने के बाद मुझे लगता है कोई हानि नही होती।भले ही कुछ समय के लिए या ज्यादा समय के लिए..हम मानसिक रूप से अस्थिर हो जाते हैं या भावनात्मक रूप से उद्धेलित हो जाते हैं। हमे ऐसा लगने लगता है कि अब शायद हमारे लिए कुछ भी नही बचेगा........अब हमारा जीना मात्र मजबूरी बन कर रह जाएगा...लेकिन ऐसा कुछ भी नही होता.....समय एक ऐसा मरहम है जो सभी घावों को धीरे धीरे भर ही देता है।

इस तरह कुछ समय बीतनें पर जीवन में एक तरह का नयापन महसूस होता है.....जीवन को एक नये रास्ते पर चलने की प्रेरणा मिलती है।पता नही कब किस के मुहँ से सुना था कि जीवन की कठिनाईयां आने पर उन से भागों मत....बल्कि उन का हल खोजों। यदि असफलता मिलती है तो उस का कारण खोजों।कारण नही ढूंढ पाते....तो भी रुकना मत......क्युंकि यह जीवन तुम्हें जीनें के लिए मिला है।भले ही इस जीवन को तुम अपने ढंग से नही ढाल पा रहे हो.....तो फिर जिस ढंग से यह जीवन तुम्हें बहा रहा है उसी में बहते हुए ही उस का आनंद उठाओ।