रात के सन्नाटों में
अधमरे सायों के बीच
जब भी जग कर देखा
तुम नजर आई।
शायद यह मेरा भ्रम हो
लेकिन
तुम्हारी बातों का सिलसिला
एक कैंची बन कर
कल्पना के पंख काटकर
हकीकत मे रंगने वाला
झूठ कैसे कह दूँ-
मात्र सपना है!
नहीं
वह जो भूत के समान
सदा सिर पर सवार हो
दिल में हिलोरे मारती रहती है
तुम्हारी ही है
याद।
याद क्या है?
आज तक जाना ना था।
आज तुम्हीं ने कह दिया-
"अधूरा मिलन"
शायद ठीक कहा था
किसी ने
जीवन की सही परिभाषा-
याद ही है।
जो हम सभी को
सताती है
मिलाती है
हँसाती है
रूलाती है
भूत वर्तमान और भविष्य की
लड़ी है।
एक बार टूटने वाली
साँसों की कड़ी है
याद।
बहुत सुंदर भव पूर्ण रचना,..यादो का विश्लेश्ण अच्छा किया है आपने।
ReplyDeleteसुनीता(शानू)
बढ़िया. लिखते रहें.
ReplyDeleteभूतों कि तरह सर पे सवार यादें .... बढिया है ...
ReplyDeleteबढ़िया। रुचिकर रहा पढ़ना।
ReplyDeleteपरमजीत जी आपकी रचनाएँ पिछले कुछ समय से नेट पर पढ रहा हूँ तथा आनंदित हो रहा हूँ। यदि संभव हो तो बैकग्राउंड के रंग पर पुनर्विचार कीजिएगा।
ReplyDeleteभाया, अच्छी कविता है ।या बात से हम भी सहमत है कि याद "अधूरा मिलन" ही होता है।
ReplyDeleteयाद क्या है?
आज तक जाना ना था।
आज तुम्हीं ने कह दिया-
"अधूरा मिलन"
भाइजान, अच्छा लिखते हो।
ReplyDeleteपरमजीत जी ब्लॉग पर आपसे मुलाकात अच्छी लगी।
ReplyDeleteआपकी कविताएं भी पढ़ी, तारीफ-ए- काबिल।
पुरक़ैफ़