अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
मेरे भीतर की काइ में
बहुत रेंगते कीट-पतंगें
सूखे वृक्ष, झाड़, कटीले,
जंगल के सब जीव भरे हैं
सीलन बदबू भरी पड़ी जो
उसको पहले साफ करूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
होनें, ना होनें से मेरे,
उनको फरक कहाँ पड़ता है।
गीत गाँऊ तभी संग उनका
मुझको तो अक्सर मिलता है।
लेकिन फिर टूटे पंखों संग
उड़ने का प्रयास करूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
समता को भी अर्थहीन कर
केवल चलनें की अभिलाषा
सब से आगे माँग रहे जो
क्या ये संग, मुझको भाता है।
फिर भी उनका साथ चाहिए,
बिन दुल्हन के रास करूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
भीतर के कोलाहल का भय़
सबके भीतर ही बैठा है।
लेकिन स्वीकारे कोई कैसे
मन तो सबका ही ऐठा है।
अपनी ऐंठन को कूट-काट कर
फूलो-सा आभास धरूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
मेरे भीतर की काइ में
बहुत रेंगते कीट-पतंगें
सूखे वृक्ष, झाड़, कटीले,
जंगल के सब जीव भरे हैं
सीलन बदबू भरी पड़ी जो
उसको पहले साफ करूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
होनें, ना होनें से मेरे,
उनको फरक कहाँ पड़ता है।
गीत गाँऊ तभी संग उनका
मुझको तो अक्सर मिलता है।
लेकिन फिर टूटे पंखों संग
उड़ने का प्रयास करूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
समता को भी अर्थहीन कर
केवल चलनें की अभिलाषा
सब से आगे माँग रहे जो
क्या ये संग, मुझको भाता है।
फिर भी उनका साथ चाहिए,
बिन दुल्हन के रास करूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
भीतर के कोलाहल का भय़
सबके भीतर ही बैठा है।
लेकिन स्वीकारे कोई कैसे
मन तो सबका ही ऐठा है।
अपनी ऐंठन को कूट-काट कर
फूलो-सा आभास धरूँगा।
अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।
परमजीत जी,बहुत अच्छी कविता लिखी है।आज का सब से मुश्किल काम यही है कि आदमी अपने अन्दर नही झाँकना चाहता।वह हमेशा बाहर की फिक्र मे अपने को व्यस्त रख कर, सच्चाई से मुँह मोड़े रहता है।जिस तरह कबूतर आँखे बन्द कर के समझता है कि बिल्ली उसे नही देख रही,लेकिन उस की यही मूर्खता उस का अन्त का कारण बन जाती है।आप ने सही कहा है-
ReplyDeleteभीतर के कोलाहल का भय़
सबके भीतर ही बैठा है।
लेकिन स्वीकारे कोई कैसे
मन तो सबका ही ऐठा है।
अपनी ऐंठन को कूट-काट कर
फूलो-सा आभास धरूँगा।
बाली जी सहीं कहा आपने, हमें अपने अंदर भी झांकना होगा, बहुत ही सुन्दर कविता ।
ReplyDeleteसुन्दर हृदय स्पर्शी कविता है, बधाई.
ReplyDeleteपरमजीत जीं,
ReplyDeleteमेरे मन की बात आप भी कर रहे हैं ।
दीपक भारतदीप
अच्छी कविता लिखी है। आजकल लोग अपने गिरेबां में कहां झांकते हैं?
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