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Thursday, August 30, 2007

मुक्तक-माला-७

(आगरा की आग)


१.


अपनी लगाई आग में, जल रहे हैं लोग ।

आग का तो काम है जलना जलाना रोज ।

दूजे की भूल देख, अपनी इन्सानियत छोड़ी,

ना मालूम कहाँ खॊ गए हैं, आदमी के होश ।


२.


भीतर की आग, बाहर भी वही काम करेगी ।

आस-पास सब जगह, जहाँ पाँव धरेगी ।

पहले जरा उसका, इस्तमाल समझ ले इन्सां,

फिर आग यही, हरिक शै रोशन करेगी ।


३.
जलता है कोई शख्स अगर, यह आँख रोती है।

हर इक नयी कब्र में,नयी आग बोती है ।

सब जानते हैं कौन मुजरिम इस खता का है,

ना जाने फिर भी क्यूँ, इन्सानियत सोती है।

10 comments:

  1. बहुत ही अच्छे मुक्त्क लिखे हैं।इस मुक्त्क मे बहुत अच्छा संदेस है-

    भीतर की आग, बाहर भी वही काम करेगी ।
    आस-पास सब जगह, जहाँ पाँव धरेगी ।
    पहले जरा उसका, इस्तमाल समझ ले इन्सां,
    फिर आग यही, हरिक शै रोशन करेगी ।

    -तरनजीत-

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  2. आज कल के हालात पर बहुत अच्छे मुक्तक हैं।बहुत सही कहा है-

    .जलता है कोई शख्स अगर, यह आँख रोती है।
    हर इक नयी कब्र में,नयी आग बोती है ।
    सब जानते हैं कौन मुजरिम इस खता का है,
    ना जाने फिर भी क्यूँ, इन्सानियत सोती है।

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  3. बहुत अच्छा लिखा है बाली जी. और बहुत सामयिक भी. धन्यवाद.

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  4. सही कहा. मन का द्वेष ही हमारे आस पास की हिंसा का कारण है.
    आपके शब्दों में--

    "भीतर की आग, बाहर भी वही काम करेगी ।आस-पास सब जगह, जहाँ पाँव धरेगी "

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  5. सब जानते हैं कौन मुजरिम इस खता का है,

    ना मालूम कहाँ खॊ गए हैं, आदमी के होश ।


    बेबाक अभिव्यक्ति

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  6. मुझे आप के मुक्तक बहुत अच्छे लगे।

    भीतर की आग, बाहर भी वही काम करेगी ।
    आस-पास सब जगह, जहाँ पाँव धरेगी ।
    पहले जरा उसका, इस्तमाल समझ ले इन्सां,
    फिर आग यही, हरिक शै रोशन करेगी ।

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  7. बहुत बढिया मर्मस्पर्शी
    दीपक भारतदीप

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  8. वाह परमजीत भाई. सही मुक्तक-सामायिक. बहुत खूब!! लिखते रहें.

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  9. बहुत बढिया मुकत्क हैं।

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  10. Bahut badhiyaa muktak likhe hain.

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