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Saturday, September 8, 2007

तू समझा रे


रात अंधेरी चाँद ना तारे,


मन के मितवा खो गए सारे।


अब तन्हा ही चलना होगा


धारा बन तू बहता जा रे।


जिनको अपना मानके बैठा,


ना जाने कब राह बदल लें।


विश्वासों की कडि़याँ टूटी


संभल-संभल कर कदम बढ़ा रे।


जानके सच को मन ना मानें


मोह-माया का जाल बड़ा रे।


अपने को, खोजा नही हमनें,


बाहर बनाए महल मीनारें।


अब जो बोया खुद ही काटो,


रोप बबूल, अब आम कहाँ रे।


दूजों को उपदेश ना देना,


अपने मन को तू समझा रे।




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3 comments:

  1. बहुत ही प्रेरणा दायक.

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  2. अब जो बोया खुद ही काटो,



    रोप बबूल, अब आम कहाँ रे।
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    जोरदार पंक्तिया
    दीपक भारतदीप

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