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Thursday, October 25, 2007

मुक्तक-माला-७



रुक-रुक के चलती जिन्दगी,ना जाने कब ठहरे।

सुनता नही है कोई यहाँ, सब हुए बहरे।

अब अपने आप से सदा, बात तू करना,

असली नजर आता नही, सभी नकली हैं चहरे।




देखा जो आईना तो भरम, मेरा भी टूटा।

जाना जो सच मैनें, तो अपने आप से रुठा।

पढ्ता रहा दूजो को यहाँ, खुद को भूल कर,

अपने आप को मैनें, खुद ही बहुत लूटा।

4 comments:

  1. कहाँ हैं भाई इतने दिनों से?

    बढ़िया है.

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  2. सच में कहाँ चल दिये थे… :}
    सुंदर है अगर दो-चार पंक्तियाँ और जुड़ जाती तो…
    पढ़ते-2 लगा की रुक गया एक गहन बहाव में।

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  3. कविता सुंदर है,सारगर्भित है,अच्छी अभिव्यक्ति,अच्छे भाव उभरे हैं.बधाई

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  4. बहुत बढिया परमजीत जी
    दीपक भारतदीप

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