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Sunday, October 28, 2007

भीतर की रोशनी

छोटी-सी

बात के लिए

शब्दों की उधारी

अच्छी नही लगती।

इसी लिए भीतर

कोई लौं नही जलती।



इस लौं को जलाने के लिए

अपने शब्दों को

अपने भीतर से

निकाल कर सहेजें।


शब्दों के साथ

भावनाओं को परोसे

और सही आदमी को भेजें।

2 comments:

  1. सुंदर कविता. बात तो बहुत पते की बताई जी आपने. पर सही आदमी मिले कंहा और पता भी कैसे चले कौन सही और कौन ग़लत. हाँ कोशिश जरुर कर सकते है.

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  2. bheetar kee raushni ...ye vo raushni hai jo aade vakt par khoob kaam aati hai ..jiske saamne andhera tikta nahi....magar lau jalaana itna aasaan bhi nahi ...

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