हम से होकर अनंत दिशाएं चारों ओर जाती हैं....लेकिन सभी दिशाएं वापिस लौटनें पर हम में ही सिमट जाती हैं...हम सभी को अपनी-अपनी दिशा की तलाश है..आओ मिलकर अपनी दिशा खोजें।
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Tuesday, August 5, 2008
कामाग्नी
यह समय हरेक इंसान के जीवन में आता है, जब यह कामाग्नी इन्सान के भीतर एक चिंगारी बन कर फूटती है और फिर छोटे-छोटे हवा के थपेड़े उसे धीरे-धीरे इतना भड़का देते हैं कि इस आग के लपेटे में जो भी फँसता है...वह इस आग में जल कर भस्म हुए बिना नही बचता।भले ही किसी के जीवन में यह अवसर सिर्फ एक बार ही आए।पता नही कोई इससे बचा भी है या नही?लेकिन जीवन की इस सच्चाई को कैसे झुठलाया जा सकता है....शायद यह कोई नही जानता।इसी सोच नें इस कविता को जन्म दिया है......
अरे मन !
क्यूँ भटकाता है?
पता नही-
तू मेरा मालिक है या मैं?
लेकिन हरिक स्वयं को बताता है।
ऐसा क्यूँ कर होता है-
हर नव यौवना बराबर की लगती है।
दो पत्थरों के आपस में छूते ही
आग-सी जलती है?
शायद
मेरे भीतर कुछ गलत है
जो मुझ को भटकाता है।
लेकिन उस गलत को
कौन ढूँढ पाता है?
पता नही हजारों हजार बार,
शायद जन्म जन्मान्तरों से,
चलते-चलते अनायास
इंसान गिर जाता है।
होश में आनें के बाद,
अपनें को गलियाता है।
लेकिन फिर भी,
सुन्दरता के भीतर
अक्सर ढूंढ लेता है तुम्हें
और स्वयं को,
जल रही कामाग्नी के बीच
पंतगा बन फड़फड़ते हुए।
पंतगा पहले दिन
लौं को देख मचलता है।
दूसरे दिन कुछ करीब आता है।
तीसरे दिन लौं पर मडराता है
और चौथे दिन .........
उसी में समा जाता है।
जानता था इस में जले बिना
ना जान पाएगा।
इस जाननें की अभिलाषा में,
स्वयं को गँवाएगा।
नही जानता-
क्या लौ भी वही महसूस करती है....
जो पंतगा करता है।
या हर दीया....
पंतगे के लिए जलता है।
अक्सर
इसी सोच-विचार में,
यह मन अटक जाता है।
अरे मन !
क्यूँ भटकाता है?
पता नही-
तू मेरा मालिक है या मैं?
लेकिन हरिक स्वयं को बताता है।
बहुत उम्दा भाव और बेहतरीन रचना, बधाई.
ReplyDeleteआपने तो रचना के साथ अग्नि भी प्रज्जलित कर दिया :)
ReplyDeleteबेहतरीन रचना.........
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, लेकिन ये अग्नि कहां से लाए ये जरूर बताए हमें। कभी जरूरत पड़ी तो ले लेंगे।
ReplyDeleteसुंदर...अति उत्तम।।।।
har pud kuch naya kah gayaa..bahut acchhey bhaav
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव, यह अगनि कही चीन से अलोपिक माशाल से तो नही ले आये,धन्यवाद
ReplyDeleteमन बड़ा चंचल है इसे वश में रखना इतना आसान नहीं!
ReplyDeleteआपकी कविता अद्भुत है...
ReplyDeleteअरे मन !
ReplyDeleteक्यूँ भटकाता है?
पता नही-
तू मेरा मालिक है या मैं?
जब तक अँधेरा तो मन, मालिक !
जब हो प्रकाश तो हम, मन के मालिक !!
शुभकामनाएं !
बहुत ही बढिया रचना... पढ़ कर बहुत अच्छा लगा॥
ReplyDeleteडा रविंद्र सिंह मान
bahut khub
ReplyDeleteसुन्दर भाव
ReplyDeleteबधाई
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाऐं ओर बहुत बधाई आप सब को
ReplyDeleteस्वतन्त्रता दिवस पर आप व आपके पूरे परिवार को बधाई व शुभ-कामनाएं...
ReplyDeleteजय-हिन्द
Paramjeet ji kya likha hai aapne. bhut hi badhiya.
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