हे बाढ़!
तुम उन के लिए कितनी सुन्दर हो,
जिन्हें तेरे आनें से,
राहत देनें के नाम पर,
अपनें घर भरनें के मौके मिलते हैं।
उन के लिए कितनी बुरी हो,
जिन्हें राहत के नाम पर धोखें मिलते हैं।
तुम इसी तरह आओ
इस देश को बहाओ
कुर्सियों पर बैठे हैं मरे हुए लोग।
उन्हें अभी नींद से मत उठाओ।
उन की नीदं तो तभी टूटेगी
जब राहत कोष से,
राहत की मोटी रकम उन के घर पहुँचेगी।
बाली साहिब आप बहुत गेरहाजर रहते हे, भाई यह नही चलेगा, रोजाना नही तो कम से कम सप्ताह मे एक पोस्ट तो जरुर दिया करो.बुरा ना मानान अपना समझ कर कह दिया,
ReplyDeleteआप की कविता बहुत से सच खोल रही हे, पहले हम लॊग यहां से पेसा इक्कटा कर के भेज दी थे, लेकिन जब पता चल की यह पेसा उन लोगो के पास पहुचता ही नही तो धीरे धीरे लोगो ने पेसा भेजना बन्द कर दिया, अब यहां से समाग्री जाती हे , तो हमारे नेता लोग मना करते हे या फ़िर नखरे करते हे,
धन्यवाद
बहुत तीखा कटाक्ष किया है आपने!
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
Achha aur teekha vyangya hai.sachai bhi yahi hai.
ReplyDeleteउन की नीदं तो तभी टूटेगी
ReplyDeleteजब राहत कोष से,
राहत की मोटी रकम उन के घर पहुँचेगी।
" very emotionally described the pain for the sufferers of natural disaster. very well said"
Regards
काफी दिनों बाद पढ़ा आपको।
ReplyDeleteबढ़िया लगी ये पंक्तियॉं:-
उन की नीदं तो तभी टूटेगी
जब राहत कोष से,
राहत की मोटी रकम उन के घर पहुँचेगी।
बहुत ही सुन्दर! राहत का असली गँतव्य कहाँ होता है
ReplyDeleteआपने बहुत सटीक रूप में दरशा दिया। बधाई।
सुंदर,..........
ReplyDeleteबेहतरीन,.......
यह व्यंग कम, सच ज़्यादा है पर हमारे सोचने से क्या होगा, उन भ्रष्ट झूठे वादा करने वालों की आँखें खुलनी चाहिए!
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता. अफ़सोस कि यह सब ही सच है.
ReplyDeleteवाह... अच्छा व्यंग्य.. बधाई ...
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