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Wednesday, July 22, 2009

प्रतिस्पर्धा


अब मुझे उड़ने दो!
देखना चाहता हूँ -
उस ऊँचे आकाश के पार
क्या है?
जहाँ वह भी
यह भी और मै भी,
पहुँचने की होड़ में,
एक दूसरे को धकियाते
चल रहें हैं।

लगता है जैसे
जो पहले पहुँचेगा
वही समेट लेगा
सब कुछ।
हम सभी
यही मान कर तो
चले जा रहे हैं शायद।

जब कि जानते हैं ,
आकाश के पार
हम भी ना रहेगें।
क्युंकि वहाँ सिर्फ
आकाश ही रह सकता है।

16 comments:

  1. सच है धकियाते मुकियाते एक मुकाम पर पहुँच जाने के बाद भी संतोष नहीं होता. फिर यह आपाधापी क्यों ?

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  2. ये सच है की आकाश के पर भी आकाश है ....फिर भी हम बोखलाए हुए प्रतिस्पर्धा में है..कितना अच्छा हो की हम अपने भीतर के आकाश में घुल जाए...
    मौका मिले तो मेरे आकाश में आयें
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  3. "क्योंकि वहां सिर्फ आकाश ही रह सकता है"
    बहुत सुन्दर!

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  4. बहुत खूब भाई साहब........
    द्वंद भर दिया है आपने एक बार फतह करने की बात और फिर उस पर उसी के अधिकार की बात...............
    अच्छी लगी आपकी ये रचना..........

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  5. मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! अब तो मैं आपका फोल्लोवेर बन गई हूँ इसलिए आती रहूंगी!
    मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है-
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  6. बहुत खूब नये अंदाज़ मे तो वहँजाकर एक और आकाश ढूँढ लेंगे कहते हैं ना ऐसे कई आकाश और भी हैं नहीं तो कल्पनायें तो हैं ही और आकाश घड लेंगी सुन्दर कविता बधाई

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  7. bahut hi gahari bhawana ......jo bahut kuchh samete huye hai ........atisundar

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  8. उफ़.....आपने तो मेरे दिल की बात लिख दी....अब मैं अपने दिल को कैसे सम्भालूँ.....??खुद को कैसे धरती पर समेट कर रखूं....??

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  9. हाले-दिल है मेरा, बात को को यूँ ही ना समझना!

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  10. सहज अन्दाज,सरल शब्द मगर गहरी बात है रचना में,
    न कोई रहा है,न कोई रहेगा
    घड़ी हर घड़ी यह जताने लगी है
    श्याम सखा श्याम

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  11. वाह! बहोत सुंदर रचना है आपकी। अभिनंदन।

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