हम से होकर अनंत दिशाएं चारों ओर जाती हैं....लेकिन सभी दिशाएं वापिस लौटनें पर हम में ही सिमट जाती हैं...हम सभी को अपनी-अपनी दिशा की तलाश है..आओ मिलकर अपनी दिशा खोजें।
Wednesday, July 22, 2009
प्रतिस्पर्धा
अब मुझे उड़ने दो!
देखना चाहता हूँ -
उस ऊँचे आकाश के पार
क्या है?
जहाँ वह भी
यह भी और मै भी,
पहुँचने की होड़ में,
एक दूसरे को धकियाते
चल रहें हैं।
लगता है जैसे
जो पहले पहुँचेगा
वही समेट लेगा
सब कुछ।
हम सभी
यही मान कर तो
चले जा रहे हैं शायद।
जब कि जानते हैं ,
आकाश के पार
हम भी ना रहेगें।
क्युंकि वहाँ सिर्फ
आकाश ही रह सकता है।
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सच है धकियाते मुकियाते एक मुकाम पर पहुँच जाने के बाद भी संतोष नहीं होता. फिर यह आपाधापी क्यों ?
ReplyDeleteये सच है की आकाश के पर भी आकाश है ....फिर भी हम बोखलाए हुए प्रतिस्पर्धा में है..कितना अच्छा हो की हम अपने भीतर के आकाश में घुल जाए...
ReplyDeleteमौका मिले तो मेरे आकाश में आयें
http://somadri.blogspot.com or, http://som-ras.blogspot.com
"क्योंकि वहां सिर्फ आकाश ही रह सकता है"
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
बहुत खूब भाई साहब........
ReplyDeleteद्वंद भर दिया है आपने एक बार फतह करने की बात और फिर उस पर उसी के अधिकार की बात...............
अच्छी लगी आपकी ये रचना..........
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! अब तो मैं आपका फोल्लोवेर बन गई हूँ इसलिए आती रहूंगी!
ReplyDeleteमेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है-
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बहुत सुंदर भाव !!
ReplyDeleteबहुत खूब नये अंदाज़ मे तो वहँजाकर एक और आकाश ढूँढ लेंगे कहते हैं ना ऐसे कई आकाश और भी हैं नहीं तो कल्पनायें तो हैं ही और आकाश घड लेंगी सुन्दर कविता बधाई
ReplyDeletesabki apni unnti ki alag alg pribhsha hoti hai .
ReplyDeletebahut hi gahari bhawana ......jo bahut kuchh samete huye hai ........atisundar
ReplyDeleteउफ़.....आपने तो मेरे दिल की बात लिख दी....अब मैं अपने दिल को कैसे सम्भालूँ.....??खुद को कैसे धरती पर समेट कर रखूं....??
ReplyDeleteहाले-दिल है मेरा, बात को को यूँ ही ना समझना!
ReplyDeleteअति सुन्दर
ReplyDeleteक्या बात है। बहुत खूब।
ReplyDeleteसहज अन्दाज,सरल शब्द मगर गहरी बात है रचना में,
ReplyDeleteन कोई रहा है,न कोई रहेगा
घड़ी हर घड़ी यह जताने लगी है
श्याम सखा श्याम
वाह! बहोत सुंदर रचना है आपकी। अभिनंदन।
ReplyDeleteअतिसुंदर
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