ये मन के घोड़े भी आखिर कब तक दोड़ते रहेगें।एक ना एक दिन थक कर रुक जायेगें। मगर सोचता हूँ इन के थक कर रूकने से पहले अपने असली घर पहुँच जाऊँ।ऐसी ख्वाहिश सिर्फ मेरी ही नही.शायद सभी की होती होगी। लेकिन क्या यह पूरी भी होती है?मन इस प्रश्न पर हमेशा मौन हो जाता है। जैसे वह इस प्रश्न का उत्तर हमीं से चाहता हो।लेकिन हम भी बहुत अजीब हैं ....कभी इस प्रश्न को गंभीरता से नही लेते। ऐसा लगता है कि अभी इस विषय पर इस प्रश्न पर विचार करने का समय नही आया है और हमारी जिन्दगी यूँही बीत जाती है।जब मन के घोडे़ एक ही जगह खड़े रह कर मात्र सिर हिलाते रहते हैं और हिनहिनाते रहते है उस समय तक बहुत देर हो चुकी होती है जिन्दगी के मायने ही बदल जाते है।
इन्हे काबू कर लिया तो सब काबू हो गया
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ReplyDeleteइन घोड़ों को काबू में लाना आसान नहीं....
विचारणीय.....
सादर
अनु
कभी बैठना हमें अकेले में भाता है
ReplyDeleteThanks for writinng
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