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Friday, November 2, 2007

वो जिन्दा जलता इंन्सा.......




वो जिन्दा जलता इंन्सा फिर याद आ रहा है।

इंन्सा के भीतर का शैतान सिर उठा रहा है।


हे कौन जो इनके दिलों को प्यार से भर दे,
खुदा, संम्भाल इन्हें, ये कहाँ को जा रहा है।

दर्द के मारों को न्याय मिल नही रहा है।
शर्मसार कोई यहाँ, कब कोई हुआ है?

कुर्सीयों का खेल सभी खेलते हैं लोग,

आज इंन्सान को इंन्सा, कैसे खा रहा है।

क्या मिलेगीं मुक्ति कभी, मेरे देश को इनसे?

हैवानियत का खेल जो, मासूमों से हैं, खेलें।

कोई बुलाओ ईसा,अल्लाह,राम ,वाहगुरू को!

अपनी बनाई दुनिया को अब आ के वही झेंलें।

मै नासमझ हूँ, जानता नही, किस का है कसूर?

इंन्सा इसी लिए , तुझे नीचें बुला रहा है।


वो जिन्दा जलता इंन्सा फिर याद आ रहा है।

इंन्सा के भीतर का शैतान सिर उठा रहा है।

2 comments:

  1. क्या जोरदार कविता कही है आपने आज के इंसान के ऊपर. सही है. आज की आपकी दोनों पोस्टों ने मन विचलित कर दिया.

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  2. उन कुछ दिनों ने भारतीय समाज पर क्या गहरा असर किया है, इसे सत्ता के गलियारों में घूमते भेडिये नही समझ सकते।

    वो दिन आज भी मेरे ज़हन पर भारी गुज़रते हैं।

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