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Saturday, February 23, 2008

धोखा!



गुलशन में फूल खिल गए सारे गुलाब के,
जब चहरे पे तबुस्सुम, आई जनाब के,


यही सोच हमनें हाथ अपना बढा दिया,
खुद ही हुआ अफसोस, हमनें ये क्या किया,


किसी ओर के ख्यालों में वो मुस्कराए थे,
नजरों मॆ हमने खुद को क्यूँकर गिरा दिया,


अब नाराज हैं खुद से,खफा खुद से हो गए,
अपनें ही हाथों क्यूँकर हुए टुकड़ें ये दिल के,


गुलशन में फूल खिल गए सारे गुलाब के,
जब चहरे पे तबुस्सुम, आई जनाब के,


8 comments:

  1. अति सुंदर रचना.
    मीठे अहसास से दिल को गुदगुदाती हुई.

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  2. बहुत खूब...वाह... परमजीत जी.
    नीरज

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  3. आपकी रचना की कशिश ऐसी कि अन्दर तक झकझोड़ दे,अच्छी लगी आपकी रचना!

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  4. अब नाराज हैं खुद से,खफा खुद से हो गए,
    अपनें ही हाथों क्यूँकर हुए टुकड़ें ये दिल के,
    ----------------------

    क्या बात है, अब तो काव्य में दर्शन की झलक मिलने लगी है
    दीपक भारतदीप

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  5. This comment has been removed by a blog administrator.

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