गुलशन में फूल खिल गए सारे गुलाब के,
जब चहरे पे तबुस्सुम, आई जनाब के,
यही सोच हमनें हाथ अपना बढा दिया,
खुद ही हुआ अफसोस, हमनें ये क्या किया,
किसी ओर के ख्यालों में वो मुस्कराए थे,
नजरों मॆ हमने खुद को क्यूँकर गिरा दिया,
अब नाराज हैं खुद से,खफा खुद से हो गए,
अपनें ही हाथों क्यूँकर हुए टुकड़ें ये दिल के,
गुलशन में फूल खिल गए सारे गुलाब के,
जब चहरे पे तबुस्सुम, आई जनाब के,
Ati sunder!
ReplyDeleteअति सुंदर रचना.
ReplyDeleteमीठे अहसास से दिल को गुदगुदाती हुई.
बहुत खूब...वाह... परमजीत जी.
ReplyDeleteनीरज
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ReplyDeleteआपकी रचना की कशिश ऐसी कि अन्दर तक झकझोड़ दे,अच्छी लगी आपकी रचना!
ReplyDeletebahut khubsurat alfaz se saaji sundar rachana
ReplyDeleteअब नाराज हैं खुद से,खफा खुद से हो गए,
ReplyDeleteअपनें ही हाथों क्यूँकर हुए टुकड़ें ये दिल के,
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क्या बात है, अब तो काव्य में दर्शन की झलक मिलने लगी है
दीपक भारतदीप
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