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Tuesday, March 4, 2008

होई है वही जो राम रच राखी



चल रहे हैं सब मगर,
दूसरे पर है नजर,
कौन जानें रास्ते में,
साथ तेरा छोड़ दे।
जिस का साथ तूनें लिआ,
उसीनें तुझे गम ये दिया,
जा चुका है वह कहीं,
अपना मुख मोड़ के।
किस्मतमें जिसकी लिख दिया,
बदल सका है कौन यहाँ,
भाग-भाग थक गया ,
अपनी इस होड़ से।
राम को वन जाना पड़ा,
रावण को सिर गँवाना पड़ा,
सीता समाई धरती में,
रामजी को छोड़ के।
तू जिधर भी भागता है,
रातों को जागता है,
कुछ भी बदल ना सकेगा,
तेरी धूप-दोड़ से।
फिर भी इस जहां में ,
सपनें हम बुनते हैं,
फूल हम चुनते हैं,
सच से मुँह मोड़ के।
कौन बदल सका यहाँ,
विधाता का लिखा हुआ,
भोगना पड़ा सभी को सदा,
भले ,साधू,संत, चोर है ।

7 comments:

  1. कबीर सा रा रा रा रा रा रा रा रारारारारारारारा
    जोगी जी रा रा रा रा रा रा रा रा रा रा री

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  2. परमजीत जी
    तू जिधर भी भागता है,
    रातों को जागता है,
    कुछ भी बदल ना सकेगा,
    तेरी धूप-दोड़ से।
    बहुत सुंदर कविता..सत्य के एकदम करीब.
    नीरज

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  3. बहुत खुब,अच्छी कविता हे.

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  4. तू जिधर भी भागता है,
    रातों को जागता है,
    कुछ भी बदल ना सकेगा,
    तेरी धूप-दोड़ से।bahut sundar badhai

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  5. बहुत बढिया कविता
    दीपक भारतदीप

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  6. तू जिधर भी भागता है,
    रातों को जागता है,
    कुछ भी बदल ना सकेगा,
    तेरी धूप-दोड़ से।


    Bahut ahchi kavita hai aur title to bahut bahut hi sunder, yun kahiye Ati sunder! Hmmm...
    "मंगल भवन अमंगल हारी द्रवहु सुदसरथ अचर बिहारी, हो, हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
    कहहि सुनहि बहुविधि सब संता
    राम सिया राम सिया राम जय जय राम "

    rgds.

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