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Thursday, March 6, 2008

आँधियां और मैं



टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?

जिन पत्तों की डंडियां, कमजोर, यारों,
टूटकर गिर जाएं, इस में ही भला है।

कब तक बचाएगा कोई आँधियों से,
हरिक अपनें को बचानें में लगा है।

कौन किसी का साथ दे सकता यहाँ है,
भाग्य मे टूटना जिसके बँधा है ।


फैलती ज्वाला की लपटें हर कहीं पर,
सूखे पत्ते ,पेड़ ही इस में जलेगें।

आज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
वो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।

व्यथित क्यूँ कर ,परमजीत देख इनको
सृष्टि नें विधिविधान यूँ ही रचा है।

टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से ,
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?


4 comments:

  1. आज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
    वो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।bahut khub kaha

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  2. कब तक बचाएगा कोई आँधियों से,
    हरिक अपनें को बचानें में लगा है।
    क्या बात है वाह!

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  3. bahti huii nadiya sa flow hai... wah!

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  4. आज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
    वो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।
    ----------------------
    पल भर में यहाँ सब धूल हो जाता है
    पर लिखे शब्द अपनी पसीने से
    उनको समय कभी मिटा नहीं पाता है
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    दीपक भारतदीप

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