हम से होकर अनंत दिशाएं चारों ओर जाती हैं....लेकिन सभी दिशाएं वापिस लौटनें पर हम में ही सिमट जाती हैं...हम सभी को अपनी-अपनी दिशा की तलाश है..आओ मिलकर अपनी दिशा खोजें।
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Thursday, March 6, 2008
आँधियां और मैं
टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?
जिन पत्तों की डंडियां, कमजोर, यारों,
टूटकर गिर जाएं, इस में ही भला है।
कब तक बचाएगा कोई आँधियों से,
हरिक अपनें को बचानें में लगा है।
कौन किसी का साथ दे सकता यहाँ है,
भाग्य मे टूटना जिसके बँधा है ।
फैलती ज्वाला की लपटें हर कहीं पर,
सूखे पत्ते ,पेड़ ही इस में जलेगें।
आज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
वो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।
व्यथित क्यूँ कर ,परमजीत देख इनको
सृष्टि नें विधिविधान यूँ ही रचा है।
टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से ,
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?
आज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
ReplyDeleteवो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।bahut khub kaha
कब तक बचाएगा कोई आँधियों से,
ReplyDeleteहरिक अपनें को बचानें में लगा है।
क्या बात है वाह!
bahti huii nadiya sa flow hai... wah!
ReplyDeleteआज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
ReplyDeleteवो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।
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पल भर में यहाँ सब धूल हो जाता है
पर लिखे शब्द अपनी पसीने से
उनको समय कभी मिटा नहीं पाता है
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दीपक भारतदीप