हम से होकर अनंत दिशाएं चारों ओर जाती हैं....लेकिन सभी दिशाएं वापिस लौटनें पर हम में ही सिमट जाती हैं...हम सभी को अपनी-अपनी दिशा की तलाश है..आओ मिलकर अपनी दिशा खोजें।
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Friday, January 30, 2009
सूरज की तलास में
फिर निकला हूँ
अपनें सूरज की तलाश में।
उसे कंदराओं में खोजता हूँ
धरती और आकाश में।
उस की रोशनी तो
सदा से मेरे आस-पास
नजर आती है।
यही रोशनी मुझे उस के होनें का
आभास करा जाती है।
एक दिन इसी रोशनी की
डोर पकड़ कर
पहुँच जाऊँगा
उसके पास में।
इसी लिए जी रहा हूँ
आस में।
कई बार सोचता हूँ
मेरे सूरज
तुम मुझे आवाज क्युँ नही देते?
मेरी सागर में हिचकोले खाती नौका को
अपनी ओर क्युँ नही खेते?
हवा का रूख अपनी ओर
मोड़ क्युँ नही लेते?
कुछ बोलते क्युँ नही
मेरे प्रश्नों के जवाब में।
फिर निकला हूँ
अपनें सूरज की तलाश में।
aapki talash jaroor poori hogi kavita ke sath tasveer bahut pasand aayee bdhaai
ReplyDeleteबहुत बढिया।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सारगर्भित।
ReplyDeletebahot hi badhiya bhav diya hai aapne is kavita me ... khub badhiya likha hai dhero abdhai aapko sahab...
ReplyDeletearsh
behad khubsurat kha kar dusra santza lajawaab
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteसूरज की तलाश ! क्या कहने हैं,सूरज की किरणें डोर बन जाएँगी.......बहुत ही अच्छी रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर.
ReplyDeleteधन्यवाद
bahut hi sundar rachna
ReplyDeleteaapko badhai
aapka
vijay
pls see my new post