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Tuesday, April 22, 2014

हमारा .... कहाँ जोर चलता है....?




 हमारा ....
कहाँ जोर चलता है....?
भीतर सुलगते अंगारें..
अपने आस-पास ...
किसी के होनें के एहसास-भर से...
हवा देनें का काम कर जाता  है।
तब-तब भीतर के अंगार ..
शब्द बन कर फूट पड़ते हैं
मानों ...वे फूट पड़ना ही चाहते थे।
शायद सोचते होगें...
इसके बाद शांती का एहसास होगा।

मगर...
कुछ देर बाद...
अंगार फिर सुलगते से ..
महसूस होते हैं।
किसी के भी सामनें ..
फूट पड़नें की क्रिया की मजबूरी पर
तन्हाई में रोते हैं।

शायद ...
ये मानव स्वाभाव है...
या सहानूभूति हासिल करनें का 
हथकंडा..
कौन बतायेगा...
आदमी की गल्ती है...
या प्रकृति के नियम की...
या जीवन ऐसे ही चलता है ?
आदमी अपनें को..
ऐसे ही छलता है ?
 हमारा ....
कहाँ जोर चलता है....?

6 comments:

  1. सच कहा ...और इस तरह हम अपने ही दिल से खेलते हैं ....

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  2. सच क्रोध पर संयम कर पाना महा कठिन काम है। हमारा सच में जोर नही चलता। सुंदर प्रस्तुति।

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  3. सुलगते अंगारों को उगलना जितना आसान है उतना ही उन्हें पचाना मुश्किल इसलिए कोई पचाने की मेहनत नहीं करना चाहता है... मानव प्रकृति ही ऐसी है कि वह आसानी की ओर जल्दी झुकता है..

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  4. मानव स्वभाव है ही ऐसा....
    अच्छी रचना..

    अनु

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  5. अति सुन्दर खूबसूरत कथ्य...

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