हमारा ....
कहाँ जोर चलता है....?
भीतर सुलगते अंगारें..
अपने आस-पास ...
किसी के होनें के एहसास-भर से...
हवा देनें का काम कर जाता है।
तब-तब भीतर के अंगार ..
शब्द बन कर फूट पड़ते हैं
मानों ...वे फूट पड़ना ही चाहते थे।
शायद सोचते होगें...
इसके बाद शांती का एहसास होगा।
मगर...
कुछ देर बाद...
अंगार फिर सुलगते से ..
महसूस होते हैं।
किसी के भी सामनें ..
फूट पड़नें की क्रिया की मजबूरी पर
तन्हाई में रोते हैं।
शायद ...
ये मानव स्वाभाव है...
या सहानूभूति हासिल करनें का
हथकंडा..
कौन बतायेगा...
आदमी की गल्ती है...
या प्रकृति के नियम की...
या जीवन ऐसे ही चलता है ?
आदमी अपनें को..
ऐसे ही छलता है ?
हमारा ....
कहाँ जोर चलता है....?
सच कहा ...और इस तरह हम अपने ही दिल से खेलते हैं ....
ReplyDeleteसच क्रोध पर संयम कर पाना महा कठिन काम है। हमारा सच में जोर नही चलता। सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteaapki kavita bahut achhi hai.
ReplyDeleteसुलगते अंगारों को उगलना जितना आसान है उतना ही उन्हें पचाना मुश्किल इसलिए कोई पचाने की मेहनत नहीं करना चाहता है... मानव प्रकृति ही ऐसी है कि वह आसानी की ओर जल्दी झुकता है..
ReplyDeleteमानव स्वभाव है ही ऐसा....
ReplyDeleteअच्छी रचना..
अनु
अति सुन्दर खूबसूरत कथ्य...
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