Sunday, January 13, 2008

हारा हुआ आदमी


"मैं’
आसानी से
छोड़ा जा सकता तो,
सभी सुखी होते
आज के
इंसान की इंन्सानियत देख,
नही रोते।
"मैं"को मारनें से पहले
आदमी मर जाता है।
इसी लिए
हरिक आदमी यहाँ,
"मैं" को पालता पोस्ता है
जबकि उसी के हाथों
दुख पाता है।

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हार जाता जिन्दगी से जब कभी इंन्सान ।

दूसरों से हो खफा, बन जाता है हैवान ।

अपना पराया कोई, आता नही नजर,

तब जीतने की चाहमें, बिक जाते हैं ईमान ।


5 comments:

  1. हार जाता जिन्दगी से जब कभी इंन्सान ।
    दूसरों से हो खफा, बन जाता है हैवान ।
    अपना पराया कोई, आता नही नजर,
    तब जीतने की चाहमें, बिक जाते हैं ईमान ।

    वाह
    बहुत अच्छा लिखे हैं।

    धन्यवाद।

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  2. sahi apna paraya koi aata nhi nazar,tab jitne ki chah mein bik jata insaan.bahut prabhav shali lines hai ye.

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  3. "हार जाता जिन्दगी से जब कभी इंन्सान ।
    दूसरों से हो खफा, बन जाता है हैवान ।
    अपना पराया कोई, आता नही नजर,
    तब जीतने की चाहमें, बिक जाते हैं ईमान ।"

    परमजीत, आजकाल आपकी रचनाओं में आम जीवन के तथ्य बहुत स्पष्ट रीति से आ रहे हैं. आभार!

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  4. परमजीत,
    मेरी शिकायत दर्ज करो।

    मैं आपके लेख पर आशा खोजने आता हूँ। आप अपनी कविताओं के अंत से मुझे सोचता छोड देते हो।

    संजय गुलाटी मुसाफिर

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  5. जीतने की चाहमें, बिक जाते हैं ईमान...
    वास्तविकता है। इसी के साथ दो लाइना मेरी भी..

    जीते हुए हम, हारे हुए हम।
    हारे हुए लोगों के सहारे हुए हम।

    -जेपीनारायण

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