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Wednesday, October 31, 2007

बचाव

आग को लगनें दो
आग से रोशनी फैलेगी

तभी नजर आएगा

कि हमारे आस-पास

क्या हो रहा है।

इस की परवाह

कौन करता है-

कि यह आग

किस के घर पर लगी है।

यह आग

जिस के कहनें पर

हम लगाते हैं।

उस की नजर

हमारे घर पर भी है।

इस आग में

जलते अरमा,इंसा और...

चीखते घरों का बोझ

हमारे सर पर भी है।

इस आग से बचना है तो

इस आग से मत खेलों।

जिस के कहनें पर

आग लगाते हो

उसे मत झेलों।

Monday, October 29, 2007

एक गलत तलाश

कहीं


कुछ तो है


जो तलाश बनी रहती है भीतर


एक खालीपन को


भरनें के लिए



यह बात अलग है-


हम उस खालीपन को


अपनी मरजी से


भरना चाह रहे हैं।



शायद इसी लिए


पहले से भी ज्यादा


खाली होते जा रहे हैं।

Sunday, October 28, 2007

भीतर की रोशनी

छोटी-सी

बात के लिए

शब्दों की उधारी

अच्छी नही लगती।

इसी लिए भीतर

कोई लौं नही जलती।



इस लौं को जलाने के लिए

अपने शब्दों को

अपने भीतर से

निकाल कर सहेजें।


शब्दों के साथ

भावनाओं को परोसे

और सही आदमी को भेजें।

Thursday, October 25, 2007

मुक्तक-माला-७



रुक-रुक के चलती जिन्दगी,ना जाने कब ठहरे।

सुनता नही है कोई यहाँ, सब हुए बहरे।

अब अपने आप से सदा, बात तू करना,

असली नजर आता नही, सभी नकली हैं चहरे।




देखा जो आईना तो भरम, मेरा भी टूटा।

जाना जो सच मैनें, तो अपने आप से रुठा।

पढ्ता रहा दूजो को यहाँ, खुद को भूल कर,

अपने आप को मैनें, खुद ही बहुत लूटा।