धर्म से दूर होता जा रहा है आदमी।
इस लिए आदमी को, खा रहा है आदमी।
भेजा जिसनें तुझ को यहाँ ए- आदमी,
उसी को भूलता क्यूँ जा रहा है आदमी।
आपसी होड़ में आगे रहनें की चाह में,
कुचलता जा रहा है पैरों तले यह आदमी।
अपने-पराय का नही कोई भेद है,
अपनों को निगलता जा रहा है आदमी।
धन की भूख ने भुलाए रिश्ते सभी,
हर जगह सेंध लगाता, आदमी।
ना जानें कहाँ खॊई, इन्सानियत,
जानवर से भी बदतर हुआ, आदमी ।
धर्म से दूर होता जा रहा है, आदमी।
आदमी को, खा रहा है आदमी ।
achchi post
ReplyDeleteachchi rachna
एक आंसू की भी अब कीमत नही रह गयी,
ReplyDeleteसो सो आंसू खून के बस जी रहा है आदमी
प्यार दोस्ती भाई चारा नाम को है रह गया
अब तो सीने मे भी खंजर चुभो रहा है आदमी
अब न कोई दोस्त और दुश्मन की पहचान रह गयी,
साया बन के दुश्मनी का साथ चल रहा है आदमी,
एक पल के ना सुकून न चैन को तलाशता ,
घूरती आँखों मे बस नफरत ढ़ो रहा है आदमी
Regards
ना जानें कहाँ खॊई, इन्सानियत,
ReplyDeleteजानवर से भी बदतर हुआ, आदमी ।
बिल्कुल सही लिखा है ...... बहुत ही अच्छा लिखा है। धन्यवाद ऐसी कविता के लिए .
इंसानियत के प्रति आपकी ऐसी सोच को मेरा सलाम!
ReplyDeleteबिलकुल सही लिखा हे आप ने आजकल के हालत पर, भीड मे भी मिलता नही हे आदमी.
ReplyDeleteधन्यवाद
bahot hi tazurbakari nazar aai,bali sahab..sundar rachna hai sundar abhibyakti hai........
ReplyDeleteregards
फिर भी आदमी का तारणहार है आदमी !
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!
ReplyDeleteधन की भूख ने भुलाए रिश्ते सभी,हर जगह सेंध लगाता, आदमी।.........
ReplyDeleteभगवान की सर्वश्रेष्ठ रचना की खामियां तो अच्छी लिखी। अगली पोस्ट में आदमी की कुछ खूबियों को भी उजागर करो भाई।
महोदय ,जय श्रीकृष्ण =मेरे लेख ""ज्यों की त्यों धर दीनी ""की आलोचना ,क्रटीसाइज्, उसके तथ्यों की काट करके तर्क सहित अपनी बिद्वाता पूर्ण राय ,तर्क सहित प्रदान करने की कृपा करें
ReplyDeleteना जानें कहाँ खॊई, इन्सानियत,
ReplyDeleteजानवर से भी बदतर हुआ, आदमी ।
इंसानियत नज़र ही नही आती कहीं ! आपने बहुत सही विषय पर लिखा है ....
acch laga padh kar.
ReplyDeleteregards
viny