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Sunday, July 27, 2008

कोई गीत कैसे गाएगा.....

दहशत भरे माहौल में,कोई गीत कैसे गाएगा?

आँसुओं के बीच कोई, कैसे मुस्कराएगा?


मगर यहाँ कमी कहाँ, लोग ऐसे हैं बहुत।

कुर्सी पे बैठा हो कहीं भी, रोटी सेंक जाएगा।


मौत आदमी की बनी, मोहरा उन के खेल का।

राज उन का हर जगह है,बाहर या हो जेल का।


क्षुब्ध होकर आदमी,उठाए बंदूक उन्हें ,फर्क क्या!

रुकती नही है गाड़ी उनकी, ज्यों सफर हो रेल का।


बिका हुआ है आदमी,खरीददार चाहिए।

हों भले चरित्रहीन, सत्य के गीत गाइए।


कौन-सी दिशा की ओर, देश अपना चल दिया।

मौन क्यूँ यहाँ सभी, कोई तो समझाइए ?


देखे कौन आके अब, इन्सान को समझाएगा।

दहशत भरे माहौल में, कोई गीत कैसे गाएगा?

Tuesday, July 22, 2008

कुत्ते की मौत

अपनी गली में
एक घर के बाहर
कुत्ते को रोते देख कर
परेशान हो गया।

वह कुत्ता रोता बिलखता

तड़प-तड़प कर सो गया।


इस से पहले मैनें कभी कुत्ते को

मरते ना देखा था

बस लोगो को कहते सुना था
एक दिन ऐसा आएगा
शैतान ,
कुत्ते की मौत मारा जाएगा।



वह कुत्ता तो शैतान ना था।

वह सदा रात-रात भर जाग कर,

लोगो की सेवा करता रहा।

उस की मौत पर

किसी आँख से एक आँसु ना बहा।



शायद इसी लिए लोग

कुत्ते की मौत मरना

पसंद नही करते।

क्यूँकि वह जानते हैं

कुत्ते जैसी सेवा वह ना कर पाएगें।

वह तो एक-दूसरे के परदे ढापनें के लिए

सदा एक-दूसरे की अर्थी सजाएगें।


Sunday, July 20, 2008

नर-नारी और बराबरी का हक

मत ढूंढो !
अपने आप को
दूसरो के भीतर,
वहाँ तुम पराजित हो जाओगे।
मत माँगों !
जो सदा से तुम्हारा है।
अपने को लज्जित पाओगे।


एक -दूसरे पर
लांछन लगाने से

कुछ नही होगा।

दोनों को बस
एक रास्ता

अपनाना होगा।

जब भी कोई काम
बिना दूजे की सहमति के
जो भी कुछ करे,

किया जाए,

गलत माना जाएगा।
उसी दिन
बराबरी का
बिगुल बज जाएगा।
इन्सानियत का जन्म होगा
शैतान मर जाएगा।

Thursday, July 17, 2008

क्षणिकाएं

कुछ पुरानी क्षणिकाएं

एहसान

तुम मेरी बात पर

कभी ना नही कहना।

मेरे बोझ को सदा

अपना समझ

सहना।

२.

सरकार

वादे और सपनें बेचनें की कला

सिर्फ

अपना भला।

३.

नेता

कुत्तों का मालिक

जनता का लुटेरा

एक बड़े घर में

जबरन

डाले है डेरा

४.

वामपंथी

इन के झंडें का रंग लाल

इन के मुँह का रंग लाल

इन का भोजन का रंग लाल

फिर भी कुर्सी पर बैठें हैं।

इसे कहते हैं हमारे देश में

प्रजातंत्र

है ना कमाल!!!

Monday, July 14, 2008

थोड़ा-सा प्यार होता....

जुदाई में उनकी दिल, ज़ार-ज़ार रोता।
गर दिलमें उनके, थोड़ा-सा प्यार होता।

मसीहा बन कहर, ढहाते ना रहते,
गर अपनें मोमिन पर, एतबार होता।

तबस्सुम की खातिर, दु्श्मन ना बनाते,
किसी और की है , जो मालुम होता।

ज़मानें की परवाह , छोड़ी थी हमनें,
ज़मानें संग चलते जो,एतराज होता।

अच्छा किया, ठोकर मारी जो तुमनें,
परमजीत, आशिक, शायर ना होता।

जुदाई में उनका दिल, ज़ार-ज़ार रोता।
गर दिलमें उनके, थोड़ा-सा प्यार होता।

Saturday, July 12, 2008

अपरिवर्तन

कुछ भी तो नही बदला!
सच्चा आदमी आज भी रोता है।

सुनते थे...समय बदल देता है सभी कुछ,
जो आज हो रहा है -
वह तब भी तो होता था।
सच्चा आदमी तब भी तो रोता था।

आज भी वह रेंग रहा है कीड़ा बना।
अपने ही दुखों से सना।
अपनी ही परछाईयों से भयभीत।
अपने को खुद ही ढाँढस बंधाता है।
अपनी इच्छाओं को मार कर खाता है।


अपने आस-पास बिखरे सपनें,
हमारी कल्पनाओं के पंख,
मंदिरों में बजते शंख,
सभी तो चल रहा है,
जैसे हमेशा चलता था।
सुनहरा सपना-
जैसे हमारे भीतर पलता था।

सपनों को पूरा करनें की चाहत में,
हमेशा की तरह
आदमी अपनें को खोता है।

कुछ भी तो नही बदला!

सच्चा आदमी आज भी रोता है।