
(नेट से साभार)
आज फुर्सत मे बैठ कर कुछ गजलें सुन रहा था.."तुम इतना क्यूं मुस्करा रहे हो.." इसी को सुनने के बाद गजल लिखने बैठा और ये गजल बना ली....। इस मे उस गजल की झलक भी नजर आएगी....लेकिन फिर भी लिख दी....। जब गजल कि अंतिम पंक्तियां लिखनें लगा....तो सच्चाई अपने आप सामने आ गई..ये पंक्तियां कहीं बहुत गहरे से निकल कर सामने आ गई..हैं ...आप भी देखे....।
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मुस्कराने की नही बात क्यूँ मुस्करा रहे हो।
कुछ बोलते नही , हमको बहका रहे हो।
खुशी होती गर कोई, बाँट तुझसे लेते,
क्यूं कर मुझको ऐसे, तुम सता रहे हो।
बात कुछ हुई है , चुभ रही है तुम को।
चुप रह कर मुझको , पराया बना रहे हो।
आईना भी मुझको अब , कुछ नही बताता,
लगता है ये भी मुझको, तुझ से मिल गया हो।
कहने को दिल की बातें, हम आज कह रहे हैं,
परमजीत दूसरो के ख्यालों को,अपना बता रहे हो।