Pages

Saturday, December 10, 2011

काश! हम बच्चो जैसे होते.....



जब  मन के भाव शुन्य हो जाते हैं तो लगता है कि अब कुछ भी तो नही हैं इस जीवन के रास्ते मे। मेरे साथ ऐसा अक्सर होता ही रहता है। समझ नही पाता कैसे उस से बाहर निकलूँ ? 
 अपने से कोई कितना लड़ सकता है...............अपने से कोई कैसे जीत सकता है ? बार-बार हार का मुँह देखना पड़ता है। यदि मन पहले ही कुछ कर लेता तो ये नौंबत ही क्यूँ आती। बेकार की जिन्दगी जीने से तो अच्छा है बैठ कर हरि भजन करूँ। सोचता हूँ हरि भजन करने से भी यदि कुछ लाभ ना हुआ तो क्या करूँगा ?
..........मैं ये सब लिख रहा था और मेरा भतीजा भी इसे पढ़ रहा था। वह कहता है-
" फिर एक काम करो ताऊजी..!!" 
मैनें पूछा-" क्या काम करूँ?"
वह बोला-" भंगड़ा पाओ!!"


पता नही उसके इतना कहते ही शुन्यता कहाँ गुम हो गई। सोचता हूँ  मेरी गंभीरता और मेरे विचारों से बेहतर तो बच्चों के बालसुलभ  और मस्ती भरे उत्तर होते हैं। क्या हम वापिस बच्चे नही बन सकते ??

Thursday, November 10, 2011

खालीपन....

शब्द क्यूँ रूठ कर बैठ गया.
बादलों की छाँव मे ऐंठ गया
हम रात भर तुझे तलाशते रहे
तू ना जानें कहाँ जाके. लेट गया।

*******************************

जब भीतर का शॊर गुम हो जाता है।
आदमी खुद से भी बहुत डर जाता है।
आहट सुनने की चाह में आतुर हो कर-
भीतर कुछ मर गया जान पाता है।

*******************************

जब भीतर का शोर चुक जाता है।
दुनिया का रंग भी बदल जाता है।
आदमी सोचता है कुछ मगर होता है कुछ
ये दुनिया भी तो  गज़ब तमाशा है।

*******************************

Sunday, October 2, 2011

मेरे देश को एक और मोहनदास करमचंद गाँधी चाहिए...

(पुन: प्रकाशित)

घोटालों पर घोटालें सामने आते जा रहे हैं ।महँगाई की मार खा-खा कर भी अपने देश के लोग मूक दर्शक बने अपने घरों से अपने धंधों से थोड़ी -सी फुरसत पा कर कुछ कहने की तकलीफ नही उठाना चाहे। जनता देख रही है कि कोई विपक्ष की पार्टी कुछ हंगामा करती रहे और हम घर बैठे सही-गलत का आंकलन करते रहें। नुक्कड़ -चौराहों और दफतरों मे आपस मे बहसियाते रहें और देश को लूटने वाले देश को लूटते रहें।सब बराबर का दुख भोग रहे हैं. लेकिन घर से बाहर निकल कर हम इस भारी तकलीफ में भी कोई मोर्चा या अंदोलन करने की ओर नही बढ़ पा रहे हैं। कारण साफ है आज हममें से किसी को भी किसी एक नेता पर विश्वास नही है...कोई भी ऐसा नेता नही है जो देशहित -जनहित मे देश की जनता के सामने खरा उतरता हो।

दूसरी और देश के विभिन्न संगठन भी ना जानें कानों मे रूई डाल कर कहाँ सोये हुए हैं। उन्हें देश की जनता की तकलीफ बिल्कुल नजर नही आ रही। ऐसा लगता है कि इन सभी ने अपनी अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी हैं...सभी सूरदास की भूमिका निभा रहें हैं।आप सब  यह देख कर हैरान हो सकते हैं जो इस समय अंधे-बहरों की भूमिकायें निभा रहे हैं ..यदि इन्हें अभी कोई दंगा या तोड़ फोड़ करनी हो तो ये सारे काम छोड़ कर ऐसी -ऐसी तुछ बातॊं पर बवाल मचा सकते हैं जिन बातों का देश की जनता से या किसी की दुख तकलीफ से दूर -दूर तक का कोई नाता नही होता। अपने आप को देश का हितेषी बताने वाले संगठन और राजनैतिक पार्टीयां इस समय एक दूसरे की टाँग खींचने में ....एक दूसरों को नीचा दिखानें की होड़ मे व्यस्त हैं। उन्हें इस बात की चिंता है कि उनकी बात मानी जाये।भले ही यह बात देश की जनता को कोई फायदा पहुँचा सकती हो या नहीं।इस बात से इन्हें कोई सरोकार नही लगता।सभी एक दूसरों को अपने से बड़ा चोर.....अपने से बड़ा भ्रष्टाचारी साबित करनें की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।देश की जनता भी सोच रही है और यह तमाशा  खामोशी से देखते हुए सोच रही होगी कि इन सब से देश को क्या फायदा मिलने वाला है।किसी के चोर और भ्रष्ट साबित हो जाने से कुछ होने वाला तो है नही। फिर कोई जाँच कमेटी का गठन हो जायेगा...और सालों तक वह कमेटी जाँच करती रहेगी और देश को बेफकूफ बनाती रहेगी और आखिर मे इतना ज्यादा समय जाँच में लगा देंगें कि देश की जनता यह भी भूल जायेगी कि आखिर ये कमेटी किस जाँच के लिये गठित की गई थी। वैसे भी यह हमारे देश का इतिहास रहा है कि ऐसी किसी भी जाँच कमेटी ने आज तक ऐसा कोई फैसला ही नही दिया जिस से किसी अपराधी या दोषी को कोई सजा हुई हो। फिर बार-बार ऐसी जाँच कमेटीयों का गठन कर के देश की जनता का पैसा क्यों बर्बाद कर रही हैं ये देश भक्त पार्टीया!!

यदि हमारे देश की सभी राजनैतिक पार्टीयां एक कानून पास कर दे तो हमारे देश से यह चोर बाजारी व भ्रष्टाचार काफी हद तक दूर हो सकता है।आप सोच रहे होगें कि ऐसा कौन -सा कानून बनाया जा सकता है? क्योंकि हमारे देश के कर्णधार इतने शातिर हैं के वे कोई ना कोई ऐसा तोड़ निकाल ही लेते हैं जिस से काला कारनामा कर के भी बचा जा सके।यदि देश की जनता जागरूक होकर एक ऐसा दबाव इन सभी पार्टीयों पर डाल कर यह कानून बनवा सके कि---

जिस पार्टी के सदस्य देश का धन हड़प करते है...खा जाते हैं वही पार्टी उस धन को देश के खजाने में जमा करवाने के लिये बाध्य होगी।दूसरा-- ऐसे भ्रष्ट नेता या पार्टी के सदस्य को या उसके परिवार के किसी सदस्य को कभी भी देश में किसी पार्टी की सदस्यता नही दी जा सकेगी।उसे चुनाव मे खड़ा होने का कोई अधिकार नही होगा।--
 

देश की जनता व पार्टीयों  के लिये भी ये कानून पास कर दिया जाये कि जो भी कोई देश की संपत्ति को नुकसान पहुँचाएगा ....उसी  को या उसकी पार्टी को उस नुकसान की भरपाई करनी पड़ेगी।

ऐसे मे हर्जाना वसूलनें के लिये जब ऐसे लोगों की संपत्ति जब्त होगी तो ऐसे लोगों की अक्ल ठिकानें पर आ सकती है।क्योंकि देश की जनता को दोषी को सजा होने से कोई लाभ नही होता। इस तरह के नुकसानों का भार अंतत: देश की जनता पर ही पड़ता है।

लेकिन मैं और आप सब जानते हैं कि ऐसा तभी हो सकता है जब देश में फिर से कोई मोहनदास कर्मचंद गाँधी पैदा हो और इस देश की जनता की अगुवाई करते हुए देश का हित साध सके।अब तक इस देश को नकली गाँधीयों से बहुत नुकसान पहुँचा है....इस लिये जब तक कोई असली गाँधी पैदा ना हो जाये हम सब को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

Monday, September 5, 2011

कोई अजनबी.......


अब और क्या कहे जब एतबार न हो।
किस से करें शिकायते जब बेवफा वो हो।

बस! निभाते चले गये जिन्दगी के दिन,
वो साथ थे हमारे...   जैसे कोई ना हो।

इस लिए मौजूदगी उनकी नही खली,
खुद गिरे खुद उठ गये थामे भला क्यों वो।
 
हर बार थी उम्मीद मुझको ना जाने क्यों,
दिल में छुपे बैठें हो शायद कहीं पे वो।

जब हमने दिल की बात बताई  यार  को,
देखा उसने ऐसे जैसे कोई अजनबी वो हो।




Monday, August 8, 2011

एक अभिलाषा

बस!
अब कोई सवाल
मेरे सामने
खड़ा मत करना।
क्यूँकि
मैं अब जीना चाहता हूँ।
ये सवाल मुझे ...
कभी जींनें नही देते।
जो आँखों से दिखता है .......
 उसे पींनें नही देते।
जरा सवालों को
मुझ से दूर रखो-
ताकि मैं पीनें का स्वाद
महसूस कर सकूँ।
जीवन जिसे कहते हैं
उस मे ठहर सकूँ।

अब मेरे भीतर
कोई अभिलाषा मत जगाना।
क्यूँकि
हर अभिलाषा की 
प्राप्ती के लिये-
अपने को भूलना पड़ता है।
लेकिन मैं अपने को
भूलना नही चाहता।
बस! मुझे जो दिखता है-
उसी को महसूस करना है।
उसी से
अपने जीवन में रंग भरना है।
मैं सोचना नही चाहता
लेकिन महसूस करता हूँ-
यह भी तो एक अभिलाषा है।
क्या मैं 
इससे भी उबर पाऊँगा।
क्या कभी बिना
अभिलाषा के जी पाऊँगा?

Thursday, July 7, 2011

तन्हाई.....



ना जानें क्यूँ ये तन्हाई मुझे भानें लगी।
तेरी यादों की परियां गीत फिर गाने लगी।

यहाँ कोई भी मेरे साथ हसँता है ना रोता है,
यही इक सोच मुझको फिर  तड़पाने लगी।

कभी पंछी-सा मन उड़ता था  आकाश में,
बस !यही बात मुझको फिर सताने लगी।

जहाँ भी देखता हूँ अब मुझे पतझड़ लगे,
बहारें भी मुझसे मुँह फैर ,   जाने लगी।

ना होती याद तो किसके सहारे जी रहा होता,
तन्हाई मुझे ये राज फिर समझाने लगी।

ना जानें क्यूँ ये तन्हाई मुझे भानें लगी।
तेरी यादों की परियां गीत फिर गाने लगी।

Sunday, June 26, 2011

तारीख...



कुछ तारीखे 
पहचान बन जाती है।
जो बहुत प्यारे होते हैं
जिन्हें हम असमय खोते हैं।
उन के जाने का समय
ना जाने क्यो ....
भूल नही पाता ये मन।
अपने भीतर बहुत खोजा
बस! जानना चाहता हूँ-
यह क्यूँकर होता है।
जब भी वह दिन आता है-
मन भीतर ही भीतर रोता है।
जानता हूँ.....
एक दिन सभी को जाना है।
सभी को विदाई का गीत गाना है।
फिर भी मन इस से बचना चाहता है-
यह दिन किसी को नही भाता है।
लेकिन सभी के जीवन में
यह दिन जरूर आता है।
जो आँखें भिगों जाता है।


ऐ मेरे मन! तू सच को स्वीकार ले।
नियम किसीसी के लिये नही बदलते विधान के,
क्यूँ अनजान बन कर दुखी होता है
अकेला बैठ क्यूँ रोता है?
लेकिन मैं जानता हूँ-
ये मन मेरी नही सुनेगा...
सब कुछ जान कर भी आँसू बहायेगा।
जब भी वह दिन आयेगा।
मुझे फिर बहुत सतायेगा।
फिर कोई दुख भरा गीत गायेगा।
सभी को यादें ऐसे ही सताती हैं-
कुछ तारीखे 
पहचान बन जाती हैं।

Saturday, June 4, 2011

उम्मीद....


बीती बातों का फिर .... सिलसिला चला।
करें शिकायतें किससे जब अपनों ने हो छला।

उधार खुशीयां ले कर जीये तो क्या जीये।
कसक दिलको तड़पाती रही.खुद को यूँ छला। 

हरिक आदमी देखता है ...दूजों का चहरा।
नजर बचाता है खुद से...बचा है कौन भला।

मुझे उम्मीद थी मैं भी जानूँगा एक दिन।
उम्मीद का क्यूँ इतनी देर सिलसिला चला।

Sunday, May 15, 2011

अपने से सवाल...

 


जब सपनों की नगरी कोई..बसा ले।
टूटे हुए सपनों को यहाँ कौन संभाले।


जीनें को तो जी रहे हैं लोग यहाँ पर
क्या जीना इसे कहते हैं कोई बता दे।


मर गया भरोसा अब इस जहांन में
प्यार के रिश्ते यहाँ धन ने संभाले।
मन बोलता है कुछ दिल चाहता है कुछ
किस की सुने कोई जरा ये तो बता दे।


बस! जीने के लिये तुझे  जिदंगी मिली
जीनें का मजा ले और हँस के बिता दे।

Monday, April 18, 2011

एक विरह गीत.....



जो तूने दिया मुझको लौटा नही पाऊँगा।
अब छोड के तुझको. कहीं नही जाऊँगा।
हर शाख पूछती है आकाश को जब देखे;
तू दूर इतना क्यूँ है कैसे फूल चड़ाऊँगा।

जो तूने दिया मुझको लौटा नही पाऊँगा।
अब छोड के तुझको. कहीं नही जाऊँगा।

हर बार हारता हूँ जब भी बढ़ा मैं आगे।
हर रात सब सोते हैं क्यूँ नैन मेरे जागे।
है हर तरफ अंधेरा भय मन पे छा रहा है;
ऐसे मे भला कैसे मैं तुझ तक आऊँगा।

जो तूने दिया मुझको लौटा नही पाऊँगा।
अब छोड के तुझको. कहीं नही जाऊँगा।

अब राह कोई मुझको तूही जरा बता दे।
कहाँ वो रोशनी है मुझ को जरा दिखा दे।
कहीं खो ना जाऊँ मै इन अंधे रास्तो पर;
जीवन -भर  क्या यूँही ठोकरें... खाऊँगा।


जो तूने दिया मुझको लौटा नही पाऊँगा।
अब छोड के तुझको. कहीं नही जाऊँगा।

 अक्सर मेरे भीतर तू  बोलता रहता है।
मैं सुन नही पाता तू जो  सदा कहता है।
बाहर नही है तुझसे कोई भी शै  यहाँ पर;
पर मैं ना समझ हूँ फिर भूल ये जाऊँगा।

जो तूने दिया मुझको लौटा नही पाऊँगा।
अब छोड के तुझको. कहीं नही जाऊँगा।

Saturday, March 5, 2011

किस से कहे कोई......




किस से कहे कोई यहाँ आज दिल की बात को।
हर कोई छुपा करके बैठा है.. दिल मे  घात को।


जिसको पुकारा वह सुनके, आज तक आया नही।
देख कर दुख होता है..... ईमान की इस मात को।


हर तरफ सियार, भेड़िये, पिशाच यहाँ  दिख रहे।
दिन को अगर ये हाल है क्या होगा काली रात को।


अपने को ही आज यहाँ ....हर कोई समझा रहा।
दोष सब दूजों का है यहाँ ,समझ सारी बात को।



किस से कहे कोई यहाँ आज दिल की बात को।
हर कोई छुपा करके बैठा है.. दिल मे  घात को।

Saturday, February 5, 2011

एक दिशाविहीन सफर............


फूल बिखरे
मन भी बिखरा
भाव बिखरे सब यहाँ।
कौन जाने किस दिशा में
जायेगा ये कारवाँ।

चल रहे हैं सब मगर
लेकिन पता नही पास है।
पहँच जायेगें कभी
हर एक मन में आस है।

है आस का ही आसरा
तोड़े नही उम्मीद को।
जिसने जगाई आस ये
छोड़े कभी ना साथ वो।

उसके बिना नही सोच सकते
जायेगें हम 
फिर कहाँ।
जानता कोई नही
क्युँ आया है 
वो यहाँ।


एक दिन यही सोचते 
खो जायेगा
अपना जहाँ।

फूल बिखरे
मन भी बिखरा
भाव बिखरे सब यहाँ।
कौन जाने किस दिशा में
जायेगा ये कारवाँ।

Saturday, January 8, 2011

मन की थाह......


मन की थाह पाना कठिन है पता नही ये सर्दी गर्मी उसको लगती है या शरीर को...अब स्व को कौन समझाये कि तुम्हे जो कहना है कहो....किसी की फिक्र क्या करनी? क्यों  उलझते रहते हो इन पचड़ों में। जिसे जैसा मन होगा अपनी समझ के घोड़े दौड़ायेगा.....तुम्हारे शब्दों का पीछा करेगा। जितनी दुरी होगी वही तक तो समझ पड़ेगी......। वैसे भी जब भी कोई अपने शब्दो का घोड़ा लेकर दौडता है तो शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि कोई उअस तक पहुँच पाया हो। लेकिन कुछ पहुँच भी जाते हैं ..... कई बार तो ऐसा आभास होता है कि कोई हमसे भी इतना आगे निकल जाता है....और यह तब एहसास होता है जब वह कोई शब्दो का पुलिंदा हमारे लिये छोड़ जाता है और हम उसमे अपने को एक नये रूप मे देखने लगते हैं।उस समय ऐसा लगता है कि यह शख्स हमारे ही रास्ते मे हम से आगे पहुँच गया है.....क्यों कि इस रास्ते को हम जानते हैं इस लिये यह जान पाते हैं कि हमारे ही रास्ते पर हमारे पीछे दोड़ने वाला यह शख्स हमे ही हमारे आगे आने वाले रास्ते का  नक्शा समझाता-सा लग रहा है।तब एक सुखद सी अनुभूति....एक तरंग सी महसूस होती है। मन कहता है कि तुम्हारे शब्दों ने सही अर्थ पा लिआ ।इस सागर मे सभी कुछ तो मौजूद है....बस खोजी नजर ही तो चाहिये हमें। लेकिन ये खोजी नजर के देखने कि शक्त्ति हरेक मे कभी एक-सी तो हो नही सकती और ना ही कभी होगी ही।तभी तो कोई इस मन के सागर की थाह नही पा पाता।लेकिन कोशिश तो सभी की जारी है...और आखिरी साँस तक जारी रहएगी भी। कोई चाहे या ना चाहे..घोड़े दोड़ते रहेगें ..सागर मे नौकायें हिचकोलों के साथ बहती रहेगी। कुछ धारा के साथ तो कुछ उस से विपरीत एक नयी दिशा की उम्मीद में। भले ही विपरीत धारा मे कोई आज तक कोई पहुँचा हो या ना पहुँचा हो। इस बात की परवाह है भी किसे?....बस! दोडों उसके साथ कभी जो तुम से आगे है या ऐसे ही दोड़ों...दोड़ना तो मन की मौज है...। यदि रूक कर खड़े हो जाओगे तो भी कोई सवाल थोड़े ही करेगा तुमसे..कि तुम रूक क्यों गये हो। अपने मालिक भी तो नही है हम.....लेकिन फिर भी कोई पूछने वाला नही है तुमसे कोई।....हाँ ! ये बात कुछ समझदारों को कहते सुना है कि अपने और दूसरों को दोड़ता देखने का अभ्यास करो। तभी शायद उस मन की थाह के करीब पहुँच पाओगे।ये मत समझना कि ये सब मैं तुमसे कहना चाहता हूँ....ऐसा बिल्कुल नही है...ये बातें तो उसी के लिये हैं जो ये सब बताता रहता है....हम उसकी कही बाते उसी को तो सुनाते रहते हैं। वही तो किया है आज मैने.......

Saturday, January 1, 2011

नया साल !!!!

alt


नयी सुबह का कर ले स्वागत
खुशीओं भरा तेरा साल हो।
महँगाई जितनी भी बढे....
बस! जेब मे तेरे माल हो।
देश- दुनिया की समस्याएं
जाएं सभी अब भाड़ में।
हरिक खुश हो जाए इस लिये
चढ़ाना सभी को झाड़ पे।
नया साल आता-जाता है
देश कहाँ कब बदला है।
नेता सभी पहचान चुके है
हर मतदाता.. पगला है।
इनको जितना लूट के खाओ
बस! चीखेगा चिल्लायेगा।
वोट  देगा और तान के चादर
जा अपने घर सो जायेगा।
देशवासीयो अब तो सुन लो
देश ना यूँ चल पायेगा।
हाथ मे डंडा लेकर निकलो
नया साल तभी आयेगा।