हम से होकर अनंत दिशाएं चारों ओर जाती हैं....लेकिन सभी दिशाएं वापिस लौटनें पर हम में ही सिमट जाती हैं...हम सभी को अपनी-अपनी दिशा की तलाश है..आओ मिलकर अपनी दिशा खोजें।
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Tuesday, December 2, 2014
Saturday, November 1, 2014
एक नया त्यौहार...
मरे हुए..
लोगॊं के बीच रहते हो
फिर भी ..
ये आशा करते हो
तुम्हारे कत्लेंआम के प्रति
इन्साफ की लड़ाई में
कोई सहयोग देगा...
रोज अंदोलन कर रहे हो तुम..
क्या जानते नही..
हमारे देश में...
अब अंदोलन भी ..
एक त्यौहार बन चुका है।
अजीब हो तुम..
ऐ मेरे मन..
यहाँ तो लोग
सच जानते हुए भी...
सिर्फ अपने हित को
साधना चाह्ते हैं..
और सच तो उसी दिन
तिल तिल कर मरनें लगा था..
जब हमनें देश हित को
अपने धर्म राजनीति और पार्टीयों ,स्वार्थो से
छोटा मान लिआ था।
Friday, October 24, 2014
मृत्यू-बोध
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
किस बात अकड़ता मन मेरे,
इन ऊँची देख अटारीयों को।
अठखेली करती मृगनैंयनी
इन लालायित क्वारीयों को ।
सूरज भी साँझ को ढलता है
सच को सबने पहचाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
नभ के आँगन जो खेल रहे,
चँदा तारे खो जायेगें ।
सपनें कितनें भी सुन्दर हो,
दिवस एक मर जायेगें।
निशि को भी बोध है भानु का
उसने भी कहना माना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
अपनों को उठाकर काँधों पर
अक्सर मरघट तुम जाते हो ।
मन शान्ती से भर जाता है,
जीवन निस्सार बताते हो।
पर बोध किसे सदा रहता है,
सब व्यर्थ ये खोना पाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
किस बात अकड़ता मन मेरे,
इन ऊँची देख अटारीयों को।
अठखेली करती मृगनैंयनी
इन लालायित क्वारीयों को ।
सूरज भी साँझ को ढलता है
सच को सबने पहचाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
नभ के आँगन जो खेल रहे,
चँदा तारे खो जायेगें ।
सपनें कितनें भी सुन्दर हो,
दिवस एक मर जायेगें।
निशि को भी बोध है भानु का
उसने भी कहना माना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
अपनों को उठाकर काँधों पर
अक्सर मरघट तुम जाते हो ।
मन शान्ती से भर जाता है,
जीवन निस्सार बताते हो।
पर बोध किसे सदा रहता है,
सब व्यर्थ ये खोना पाना है।
उसने तो इक दिन आना है।
तुझ को भी वापिस जाना है।
Friday, September 12, 2014
सपनें
टूट जाते हैं..
जब नींद टूटती है।
इस लिये अब
सपनों के पीछे
नहीं भागता।
बस! नींद ना आये.....
तुझ से यही हूँ माँगता।
***********************
दुनिया के दुखों से
दुखी हो कर बहुत रो चुका हूँ
अब दुख को मित्र बनाना चाहता हूँ
शायद दुख भी
शत्रुता भूल कर
मुझे अपना ले।
क्योंकि
मित्र हमेशा
बुरे वक्त पर काम आता है।
इस लिये हर इन्सान
बुरे वक्त पर
तुम्हारे गीत गाता है।
**************************
टूट जाते हैं..
जब नींद टूटती है।
इस लिये अब
सपनों के पीछे
नहीं भागता।
बस! नींद ना आये.....
तुझ से यही हूँ माँगता।
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दुनिया के दुखों से
दुखी हो कर बहुत रो चुका हूँ
अब दुख को मित्र बनाना चाहता हूँ
शायद दुख भी
शत्रुता भूल कर
मुझे अपना ले।
क्योंकि
मित्र हमेशा
बुरे वक्त पर काम आता है।
इस लिये हर इन्सान
बुरे वक्त पर
तुम्हारे गीत गाता है।
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Wednesday, August 27, 2014
जो होना है... वह होता है
कुछ बात नही सोची हमनें
पर शाम को खूब निहारेगें
पागल मन खुद से खेलता है
लम्बी लम्बी तलवारों से।
सजता है तन खुश मन होता
रातों को तन्हा रोता है
कोई तो देखे, अभिलाषा
अक्सर मन की फिर खोता है।
कहते हैं सपनें कभी-कभी
सच भी हो जाया करते हैं
जीवन तो वैसे नीरस है
पर सतरंगी रंग भरते हैं।
तब चलो कहीं हम भी जाकर
इक नीड़ बना बैठें अपना
कोई तो द्वारे आएगा
निर्मित कर लें ऐसा सपना।
लेकिन सपनों का बंधन तुम
अन्तरमन से जोड़ों ना तुम
टूटे सपनें दुख देते हैं
उनके पीछे दोड़ो ना तुम ।
बस! देखना है, देखों भालो
जो होना है... वह होता है ।
अनुकूल हुआ खुश ये मनवा,
विपरीत हुआ क्यों रोता है।
जो भेद प्राकृति का समझा
उसने जीना सब जान लिआ।
सपना क्या सच है जीवन में
झूठा-सच्चा सब मान लिआ।
पर शाम को खूब निहारेगें
पागल मन खुद से खेलता है
लम्बी लम्बी तलवारों से।
सजता है तन खुश मन होता
रातों को तन्हा रोता है
कोई तो देखे, अभिलाषा
अक्सर मन की फिर खोता है।
कहते हैं सपनें कभी-कभी
सच भी हो जाया करते हैं
जीवन तो वैसे नीरस है
पर सतरंगी रंग भरते हैं।
तब चलो कहीं हम भी जाकर
इक नीड़ बना बैठें अपना
कोई तो द्वारे आएगा
निर्मित कर लें ऐसा सपना।
लेकिन सपनों का बंधन तुम
अन्तरमन से जोड़ों ना तुम
टूटे सपनें दुख देते हैं
उनके पीछे दोड़ो ना तुम ।
बस! देखना है, देखों भालो
जो होना है... वह होता है ।
अनुकूल हुआ खुश ये मनवा,
विपरीत हुआ क्यों रोता है।
जो भेद प्राकृति का समझा
उसने जीना सब जान लिआ।
सपना क्या सच है जीवन में
झूठा-सच्चा सब मान लिआ।
Saturday, July 12, 2014
चलो! अब कहीं ... और चलते हैं..
चलो!
अब कहीं ...
और चलते हैं।
इन घाटों पर
पानी तो है...
लेकिन
सब ....
प्यासे रहते हैं।
सब की ..
नौकाएं टूटी हैं
पतवार बिना...
बहती रहती हैं।
कैसे करें...
भरोसा इन पर
जो अक्सर
खुद से हो हारा।
अपने लिये
स्वयं निर्मित करें
विचारों की
ये नित कारा ।
छोड़ों बन्धन..
सारे तोड़ों..
जो सत्य धरा पर
खरा ना उतरे।
कोई हो...
अपना या पराया
सम भाव से
जो नित मुकरे।
ऐसो संग हम क्यूँ..
हामी भरते हैं।
चलो!
अब कहीं ...
और चलते हैं।
Thursday, June 26, 2014
बस! तुम साक्षी रहना...
रिक्तता का बोध
कितनी बड़ी बात है।
लेकिन होता कहाँ हैं....
भीतर तो चलता रहता है...
भावों का...
कल्पनाओं का..
एक अनवरत तूफान।
सोचता हूँ....
किसी दिन
इस का बोध होगा.
मैं इसे देख पाऊँगा...
महसूस कर पाऊँगा...।
शायद...
हाँ..
या...
नहीं...
कहना कितना कठिन है।
बस! तुम साक्षी रहना।
मेरे होने या ना होने का
कभी कोई ...
महत्व ही कहाँ था।
Sunday, May 18, 2014
अपने कहे हुए शब्द
फिर लौटते हैं
जैसे पंछी साँझ ढले
लौटते हैं
अपने नीड़ों की ओर।
सोचता हूँ...
काश!
मुझे मौन रहना आता
मैं जहाँ होता..
वहीं .....
मेरा बसेरा बन जाता।
तब शायद मैं जान पाता
उस सत्य को..
जो होते हुए भी
किसी को ..
नजर नही आता।
पाना सभी चाहते हैं..
लेकिन ..
जो पाता है
उसे कभी नही भाता।
क्योंकि-
सत्य को जानकर भी
स्वयं को नही जान पाता।
Tuesday, April 22, 2014
हमारा .... कहाँ जोर चलता है....?
हमारा ....
कहाँ जोर चलता है....?
भीतर सुलगते अंगारें..
अपने आस-पास ...
किसी के होनें के एहसास-भर से...
हवा देनें का काम कर जाता है।
तब-तब भीतर के अंगार ..
शब्द बन कर फूट पड़ते हैं
मानों ...वे फूट पड़ना ही चाहते थे।
शायद सोचते होगें...
इसके बाद शांती का एहसास होगा।
मगर...
कुछ देर बाद...
अंगार फिर सुलगते से ..
महसूस होते हैं।
किसी के भी सामनें ..
फूट पड़नें की क्रिया की मजबूरी पर
तन्हाई में रोते हैं।
शायद ...
ये मानव स्वाभाव है...
या सहानूभूति हासिल करनें का
हथकंडा..
कौन बतायेगा...
आदमी की गल्ती है...
या प्रकृति के नियम की...
या जीवन ऐसे ही चलता है ?
आदमी अपनें को..
ऐसे ही छलता है ?
हमारा ....
कहाँ जोर चलता है....?
Wednesday, March 19, 2014
शैतानों की दुनिया में ... साधू बन कर जीना.. क्या समझदारी है??
ना मालूम क्यों..
हम सब बदलना चाहते हैं..
बदलाव चाहते हैं...
सिर्फ अपनें को बिना बदले!
शायद .....
भीतर ये एहसास जगता है।
बदलाव...
बहुत कुछ भीतर मार देगा..
तोड़ देगा मेरे अंह की मीनारों को..
तोड़ देगा उन संबधों को...
जिन्हें मैं अपना मान कर जी रहा था।
तोड़ देगा उन जहर भरे प्यालों को...
जिन्हें मैं अमृत समझ कर पी रहा था।
जानता हूँ......
मेरे बदलनें से...
कुछ भी नहीं बदलेंगा ....
मेरे आस-पास।
वह यथावत रहेगा....
झरना वैसे ही बहेगा...
दुश्मनों के साथ मिलकर फिर...
मेरा अपना वैसे ही मुझे छलेगा।
दुनिया कहती है....
जीवन में परिवर्तन जरूरी है...
जीना एक मजबूरी है...
उन पलों में जब ....
आस-पास आग लगी होती है..
आँख बिना आँसूओं के रोती है...
भावना शुन्य में खोती है।
तब भीतर कोई पूछता है---
शैतानों की दुनिया में ...
साधू बन कर जीना..
क्या समझदारी है??
कोई जवाब नही सूझता...
कोई आवाज नही आती...
सोचता हूँ...
अब सोचना ही छोड़ दूँ।
जिस आईने में ...
मेरे चहरे के दाग..
लोगो के भीतर लगी आग..
नजर आती है...
ऐसे आईनें को ही तोड़ दूँ।
शायद फिर
मेरा ये मन ..
भटकनें से संभलें।
ना मालूम क्यों..
हम सब बदलना चाहते हैं..
बदलाव चाहते हैं...
सिर्फ अपनें को बिना बदले!
Saturday, February 8, 2014
शब्द यात्रा
अपने
कहे हुए
शब्द
फिर लौटते हैं
जैसे पंछी साँझ ढले
लौटते हैं
अपने नीड़ों की ओर।
सोचता हूँ...
काश!
मुझे मौन रहना आता
मैं जहाँ होता..
वहीं .....
मेरा बसेरा बन जाता।
तब शायद मैं जान पाता
उस सत्य को..
जो होते हुए भी
किसी को ..
नजर नही आता।
पाना सभी चाहते हैं..
लेकिन ..
जो पाता है
उसे कभी नही भाता।
क्योंकि-
सत्य को जानकर भी
स्वयं को नही जान पाता।