Sunday, May 13, 2007

ओ माँ, तुम भी हो मतवाली



बाला की मनभावन बोली

उड़ते बाल पवन संग चोली

संध्या पर अंम्बर की लाली

बाला हँसती,मुख पर लाली

कैसी मुदित साँझ संग आली

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


आओ आँगन मे हम खेलें

माँ का प्यार मुदित हम लेलें

माँ तुम दॊडों मै पकडूँगी

अथवा तुम संग मै झगड़ूँगी

खेलो ना इक बाजी

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


किल-किल निनाद मेरा तुम देखो

चंचलता मेरी मन की पेखो

तुम हसँती तो लगता मुझको

सृष्टि सब हसँ जाती

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


बचपन की यादों मे भूला

हाथ बना तेरा, मेरा झूला

थक जाती, कभी हार ना मानी

रहती सदा मुस्काती

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


घर, आँगन, बर्तन और रोटी

काम खतम कर कब माँ सोती

जान ना पाई मै थी छोटी

बस रहती थी तुतलाती

ओ माँ तुम भी हो मतवाली।

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता ! लिखने का ढंग सीधा सरल और सुन्दर !
    घुघूती बासूती

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  2. बचपन की यादों मे भूला
    हाथ बना तेरा, मेरा झूला
    थक जाती, कभी हार ना मानी
    रहती सदा मुस्काती
    ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।

    बहुत सुन्दर

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  3. वाह ! बहुत अच्छी लगी आपकी ये कविता !

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