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Wednesday, May 30, 2007

बहुत फरेब हैं इस मोहल्ले में

अब लौटे अपने ही भीतर
बहुत फरेब है इस मोहल्ले में।
किस से पूछे किस से समझे
उलट गए हैं सारे रिस्ते
चलना भी भूले हैं अब तो
अपने कोलाहल के भय से।
दिशाहीन भटकन पथिक की
अपनें पर मुखरित होती है।
पर स्वीकार किया कब इसने
कहाँ-कहाँ से खोज रहा है
झूठ को सच करने को खोजी
इस मोहल्ले मे रहने वाला
हवा के महल खड़े कर अक्सर
अपने मे उलझा रहता है
संग ले दूजों को उलझाता
पहुचेगा कैसे मंजिल पर
अपने आप से पूछ रहा है।
क्या कोई उत्तर यह पाएगा
तलवार हवा मे घुमाने से
या किसी और बहाने से।
बहुत फरेब है इस मोहल्ले मे
जनमदाता भी हमी हैं यारों
अब दोष मड़े किस के सिर पर।
अपनी ओर ना पलट के देखा
दूजो तक बस राह बना ली
हरिक जीवन की आपाधापी
रहती है यूही चलती पर।
जागो मन अब तो मत उलझो
उधार लिए जीवन दीपक मे।
अपना दीपक खुद बन जाना।

Tuesday, May 29, 2007

मुक्तक-माला-४



आज कल जो पंजाब मे हो रहा है उनके हालातों को देख-देख कर मै उनको शांती का कोई संदेशा देना चाहता था।पता नही सोचते-सोचते मुझे क्या हुआ कि दिल मे इक टीस-सी उठी और मुक्तक लिखते-लिखते एक गीत-सा बन गया।



बस मे नही हमारे इन की लगाम कसना।
ले आड़ मजहबोंकी ,नित बुनते नया सपना।
बचना है आग से गर , तोड़ों सभी घरौंदें,
फरमान सुना रब तू"बस दिल मे मुझे रखना।"


कही बह रहे हैं आँसू, डर दिल मे है समाया।
मडँरा रहा वतन पे , ये कैसा काला साया।
सेंकनें मे लगे हैं सभी अपनी-अपनी रोटी,
करतूत ने इन्हीं की हर बार है जलाया।


जागो वतनके लोगों,मत बात इनकी मानों।
सियार है सभी ये जरा इनको पहचानों।
गिरगिटसे रंग बदलते, भूखें हैं कुर्सीयों के,
कोई वास्ता धर्म से इनका नही है,जानो।


झोंकेगें आगमे ये,सबको, जरा सम्भलना।
चालोसे इनकी यारों, बचके जरा निकलना।
फँसतेहैं फिरभी यारों, कुछ लोग सीधे-साधे,
अरदास करो रबसे ,हाथ सिर पे रखना।

Sunday, May 27, 2007

जिस यार की तलाश थी....

जिस यारकी तलाश थी साथी नही मिलें ।

उम्र गुजरी उम्मीदमें वो गुल नही खिले ।



राह पे बैठ इंतजार, अब क्या कीजिए ।

यहाँ छोड़ धूल पैर की, गुम कही गए ।



कहाँ जाइएगां अब, कहाँ ढूंढिए ऐ दिल ।

दफन करके वो मेरे, अरमान चल दिए ।



थर-थराते लबों से, दास्तां-ए-दिल कही ।

सब मुस्करा दिए और हँस के चल दिए।

Saturday, May 26, 2007

ऐसा भी होता है..

कुछ दिनों पहले हमारे घर के सामने वाला गटर बन्द हो गया था। मै अपने पड़ोसी के साथ उस की रिपोर्ट लिखाने उन के दफतर गया।उन्होने कहा कि हम अभी अपना आदमी भेजते हैं।उन्होने हमारे सामने ही उस व्यक्ति को हमारे साथ जाने को कहा। वह "जी साहब अभी जाता हूँ"कह कर बाहर आ गया और बैठकर बड़े इतमिनान के साथ बिड़ी सुलगा कर पीनें लगा। हम उससे बार-बार चलनें की विनति करते रहे और वह बार-बार हमे "अभी चलते हैं साहब" का वाक्य बोल-बोल कर टालता रहा।इसी तरह टाल-मटोल करते-करते उसे पौना घंटा हो गया। तभी मेरे पड़ोसी ने अपनी जेब से बीस का नोट निकाल उस के हाथ पर धरा और कहा" भाई.चलो भी। बहुत परेशानी हो रही है हमे ।"नोट हाथ मे आते ही वह उठ खड़ा हुआ।घर पहुँच कर गटर देखने के बाद वह फिर बोला- "साहब यह तो बड़ा लम्बा काम है। मेरे अकेले के बस का नही।"कुछ देर रूक कर वह फिर बोला" आप भी कुछ चाय- पानी का जुगाड़ करिए।" अपनी भी मजबूरी थी सो एक बीस का नोट हमने भी उस की हथेली पर धर दिया और उसने भी पाँच-दस मिनट मे अपना काम निपटाया और चल दिया।संयोग से अगले दिन ही उनके अफसर को हमारी गली मे किसी काम से आना पड़ा । मैने मौका देख उस व्यक्ति की शिकायत आफीसर से की।उसने उसी समय उस को बुला कर पूछा। तो उसने बड़ी सादगी से अपनी सफाई मे कहा-"साहब लोगो ने खुद ही खुश हो कर दिए थे ।"उस समय मुझे स्वर्गीय काका हाथरस जी का यह पद याद आ गया।उन से क्षमायाचना करते हुए उन का यह पद आप के लिए प्रेषित कर रहा हूँ।




प्रभू मेरे मै नहीं रिश्वत खाईं।
जबरन नोट भरे पाकिट में , करके हाथापाई।
मोहि फंसाइके,सफा निकसि गयॊ,सेठ बड़ो हरजाई।
भोजन-भजन न कछू सुहावै, आई रही उबकाई।
देउ दबाय केस को भगवन, कर लो आध बटाई।
कहं काका तब बिहंसि प्रभू ने, लियो कंठ लपटाई।
प्रभू मेरे मैं नहीं रिश्वत खाई।


-कवि स्वर्गीय काका हाथरसी जी- काका से क्षमायाचना सहित)

Friday, May 25, 2007

अंधानुकरण

वह सड़क

जहाँ भागम भाग

रूकती ना थी।

कोई शै किसी दूसरे के लिए

झुकती ना थी।



एक दिन उसी सड़क पर

एक अन्धा

सड़क पार करने की चाहत में

बार-बार पुकार रहा था-

"कोई सड़क पार करा दो"

लेकिन उस शोर में

उसकी आवाज दब जाती थी।

उस अन्धे की आवाज

किसी को ना भाती थी।



तभी किसी का हाथ

उसके हाथ से टकराया

उसने झट उसका हाथ

अपनें हाथों मे थाम लिया।

फिर दोनों ने

वह रस्ता पार किया।



अन्धे ने कहा-

"बहुत धन्यवाद तुम्हारा"

"तुमने सड़क पार करा दी"

वह व्यक्ति हँस कर बोला-

"धन्यवाद तो मै तुम्हें कहना चाहता हूँ"

"तुमने मेरा हाथ थामा"

"मै भी एक अन्धा हूँ।"

मुझे तुम्हारा सहारा मिला

तभी तो आज यह गुल खिला।



आज एक अन्धा

दूसरे अन्धें को सड़क पार कराता है।

तभी तो कोई अपनी मंजिल तक

पहुँच नही पाता है।

Wednesday, May 23, 2007

मुक्तक-माला-३

१.

हम उम्मीद मिलन की ले इन्तजार करते रहे।

हर कदम फूँक-फूँक कर जमीं पर धरते रहे ।

तुमनें इकबार भी ना कोशिश की समझने की,

हमीं नादां थे इक बुत से प्यार करते रहे ।

२.

दुख से घबरा कर , चलना तो ना छोड़े ।

गर राह लगे मुश्किल इक राह नयी जोड़ें ।

बेचारगी से अपनी,नजरों मे गिर ना जाना,

जिस ओर की हवा है खुद को उधर मोड़ें

३.
इक ओर गम होता हैं बिछड़ने का।
दूसरी ओर खुदा मिलन की आस है।
यहाँ रोनें-धोनें से कुछ ना होगा यारों,
यही तो जिन्दगी का इतिहास है।

इस बारे में भी सब मिलकर विचारे...सिक्खो का फैसला सही है?

आप का लेख पढा। कट्टरवादीयों पर लिखा लेख बहुत अच्छा है। लेकिन आप ने जो पंजाब के बारे में लिखा ।उस का सम्बध कट्टरवाद से नही है ।यह एक विचारणीय विषय है।जो आज सिक्ख समुदाय के साथ हो रहा है वह कल किसी अन्य समुदाय या धर्म(संप्रदाय) के साथ भी हो सकता है।राम रहीम सिहँ ने जो किया,वह सिक्ख गुरूऒ का अपमान तो है ही साथ ही दूसरे सिक्खों के ऐतिहासिक परम्परा में संशय की स्थिति पैदा करने की कोशिश भी की गई है। राम रहीम सिहँ ने, जिस तरह गुरू गोबिन्द सिहँ जी ने अपने अनुयाइयों को अमृतपान कराया था। उस ने भी ठीक उसी प्रकार, सिर्फ थोड़ा बहुत नाम व अमृत छकाने की परम्परा को बदल कर, वही कार्य दोहराया है।जिस से बाद में संशय पैदा होना स्वाभाविक है।मान लो कल हिन्दू या मुसलमानो के जनैउ संस्कार या सुनत संस्कार का नाम बदल कर कोई अन्य राम रहीम सिहँ सरीखा गुरू उस को दूसरे नाम से प्रचारित कर अपने संम्पदाय मे विलीन करना चाहेगा तो आप क्या उस का विरोध नही करेगें ? आज मात्र सिक्खों को नही सभी को इस विषय पर गंभीरता से विचार करनें की जरूरत है।कुछ दूसरे धर्मावलंबीयों ने सिक्खो की माँग को उचित ठराया है। जो कि एक अच्छा कदम है।

Tuesday, May 22, 2007

मुक्तक-माला-२

१.

मेरे चमन मे ये किसने लगा दी आग ।
पहली चिगांरीयां अभी बनी थी खाक ।
ओ,चमन के रहनुमाओं क्यूँ मौन बैठे हो,
जल जाएगा गुलिस्तां टूटेगें सभी ख्वाब।

२.

क्या ये है जिन्दगी, राह फूल खारों की।
बनते बिगड़ते कारवाँ, ओ-बहारों की।
खेलती है कश्ती मोहब्बत मे तूफां से,
उम्मीद बनी रहती जहाँ किनारो की।

बुरी नही है यह, जो काली रात आई है ।
देखों तो, सितारों की मोहक बारात लाई है ।
बड़ी ही शांत है यह तो जरा चिन्ता संगमें है,
सुबह होती है कब कैसे,यही एहसास लाई है।

Monday, May 21, 2007

गड़े मुर्दे मत उखाड़ों मेरे भाई

(मेरा यह लेख उन महानुभवों को समर्पित है जो अक्सर कुछ ऎसे विषयों को चर्चा के लिए चुन लेते हैं जो विचारों का अदान-प्रदान करते-करते ,अपशब्दॊं का इस्तमाल करनें पर उतारू हो जाते हैं।)हम मे से कुछ चिट्ठाकार हमेशा गड़े मुर्दे उखाड़ते रहते हैं। मुझे समझ नही आता कि वे उन की पेरवी कर रहे हैं या उन को उकसाने का काम कर रहे हैं।यह बात सही है कि अपनी बात रखने की सबको आजादी है।लेकिन इस का मतलब यह नही होना चाहिए कि हम शब्दो की मर्यादाऒ का ध्यान ना रखते हुए ।एक दूसरे को आहत करने पर उतारू हो जाए।किसी भी बुरी घट्ना की बार-बार चर्चा करने से वह परिस्थितियां बदल तो नही सकती।हाँ, यदि आप के पास उस समस्या का हल है तो उसे जरूर बताइए। ताकी कोई रास्ता भी निकले और जिस की आप पेरवी कर रहे हैं,उस के घावों का भराव भी हो जाए।लेकिन यह इनकी कैसी सहानुभूति है उन के प्रति ? यदि हम सभी गड़े मुर्दे ही उखाड़ते रहेगे तो इस वाक युध का क्या कभी अन्त होगा ? फिर तो हमे अपनें पुरानें इतिहास को खंगालना पड़ेगा।फिर सभी का नंगापन नजर आनें लगेगा।क्यूँकि सभी ने कभी ना कभी गलती तो की ही होगी। चाहे वह अंनजाने में हुई हो या जान बूझ कर की हो(जिन्होने जान बूझ कर गलती की है ,उन्हे सजा मिलनी चाहिए।सजा देना अदालत का काम है)।अच्छॆ बुरे लोग हर जगह मिलते हैं और आगे भी मिलते रहेगें।अरे भाई! किसी ने कहा है ना....छोड़ों कल की बातें ...वह हैं बात पुरानी.....नये दौर मे मिलकर लिखें... नयी कहानी.......हम हिन्दुस्तानी....हम हिन्दुस्तानी...।

Sunday, May 20, 2007

सपनों में जीनें वाला..........

सपनों में जीनें वाला

सच को क्या स्वीकार करेगा।

जिसने देखा कभी ना बादल

बेमोसम बरसात करेगा।



पतझड़ मे भी जिसकी बगिया

फूलॊं से भर जाती होगी ।

उससे आशाएं मत बाधों

वह तो है बस मन का रोगी।

रोगी से क्या आशा करनी

तुम से क्या व्यवाहर करेगा।

सपनों में जीनें वाला

सच को क्या स्वीकार करेगा।



झाँक आरसी मे तुम देखो

सूरत अपनी दिख जाएगी।

इधर-उधर क्या खोज रहे हो

बिन स्याही क्या लिख पाएगी।

सोये शेर के मुँह में कैसे

मृग उस का आहार बनेगा।

सपनों में जीनें वाला

सच को क्या स्वीकार करेगा।



व्यथा जीवन की जिसने जानी

उस का बेड़ा पार हो गया।

लहरों को गिननें जो बैठा

मन उसका मझधार हो गया।

भवँर फंसी किश्ती का माँझी

कैसे रस्ता पार करेगा।

सपनों में जीनें वाला

सच को क्या स्वीकार करेगा।



पंछी सभी दिशा से आते

मन बगिया भर जाती है।

जितना भी दाना डालो तुम

बगिया सब खा जाती है।

बंजर धरती पर कैसे

फूलों का अम्बार लगेगा।

सपनों में जीनें वाला

सच को क्या स्वीकार करेगा।



खाते-खाते थक जाते हैं

लौट चले फिर नीड़ों को।

कल नव चेतन हो आएगें

भोगेगें नव पीड़ों को।

चलता रहता जीवन ऎसे

जीवन का क्या सार मिलेगा।

सपनों में जीनें वाला

सच को क्या स्वीकार करेगा।



चलता रहता है यूँ ही सब

समझ ना कोई पाता है।

खाता मुँह की बार-बार

कितना यह इठलाता है।

आत्मबोध जब तक ना होगा

क्या जीवन आधार मिलेगा ?

सपनों में जीनें वाला

सच को क्या स्वीकार करेगा।

Saturday, May 19, 2007

यही है आज का सच

उस पर उठा अंगुँली

इस से बच।

इस पर उठा अंगुँली

उस से बच।



कोई पूछे गर सवाल

उस से बच ।

सिर झुका कर कह-

"थैंक्यु वैरी मच"



यही है

आज का सच।

Friday, May 18, 2007

मत कहिए कि मुझे दाल-भात खाने दीजिए...ऎसा क्यूँ

मत कहिए कि मुझे दाल भात खाने दीजिए...किसी को किसी का दाल-भात छीनने का हक़ नहीं। लेकिन ये हक़ कोई छीन रहा है। जो छीन रहा है, उसे हम जानते हैं। क्‍यों नहीं ज़ाहिर करना चाहते, इसकी वजहें हमें तलाशनी होंगी।" अविनाश जी, आप का लेख पढ रहा था ।लेकिन कुछ बातें मेरी समझ में नही आई ।अतः आप से पूछनें की इच्छा जागृत हुई । आप तो एक संपादक थे फिर भी आप को सच जाहिर करने के लिए वजहें तलाशनें की जरूरत क्यूँ पड़ी ?
फिर आप का लिखा प्रसंग पढा जो आप को याद हो आया था।उस मे लिखे इन वाक्यांशों से मै काफि प्रभावित हुआ-"हम जब संताल परगना में अख़बार निकाल रहे थे, तो साईंनाथ की संवेदना हमारी प्रेरणा थी। हमने फोटोग्राफर से कहा था, जहां जहां भूखे नंगे लोग मिलें, उनकी तस्‍वीरें लो, उनकी बदहाली छापो। हम सुखी लोगों का अख़बार नहीं निकालना चाहते।"आप के विचार सचमुच बहुत महान हैं। गरीबों के प्रति इतनी हमदर्दी आजकल के जमाने में देखने को नही मिलती। लेकिन एक नेक और हमदर्द इंसान से, जो कि एक अखबार का संपादक भी हो यह उम्मीद तो की जा सकती थी कि आप अपनें अखबार में "भूख निवारण फंड" नाम से उन गरीबों के लिए धन एकत्र करनें हेतु एक विज्ञापन तो अपनी अखबार में मुफ्त में छाप देते। ताकी उन भूखों नंगॊं को दाल- भात का जुगाड़ तो हो जाता कुछ दिनों के लिए ।आप तो बस अपनी अखबार के लिए मसाला ही जुटाते रहे।क्या आप जैसे एक संवेदनशील संपादक को यह शॊभा देता है ?

दूसरी आप की यह बात कि-"बाद में राज्‍य सरकार को मानवाधिकार आयोग ने नोटिस भी भेजा, लेकिन सरकारें चतुर होती हैं। बड़ी चतुराई से कह दिया गया कि सिदो हेम्‍ब्रम की मौत भूख से नहीं हुई।"हमारे कुछ हजम नही हुई। आप के रहते सरकार ने इतना बड़ा झूठ कैसे बोल दिया।आपने अपने अखबार के जरिए उनका भंडाफोड़ क्यूँ नही किया?

तीसरी बात आप ने किस आधार पर कही-"ऐसे मुल्‍क में आप कैसे कह सकते हैं, मुझे दाल-भात खाने दीजिए! मैं आपके हाथ जोड़ता हूं- मत कहिए कि मुझे दाल-भात खाने दीजिए।" मेरी समझ मे नही आया कि आपने यह बात क्यों कही ?

कही आप यह तो नही चाहते थे कि बाकी लोग जिन्हें यह खाने को मिल रही है(दाल-भात) वह भी भूख से "सिदो हेम्ब्रम" की तरह मर जाएं ताकी आप के अखबार को गरीबों की हमदर्दी लूटने के और मौकें मिलते रहें और आप का अखबार भी चलता रहें ?

हम नए चिट्ठाकार हैं ।अभी हमारी समझ भी कम है।कृपया हमें भी समझाएं ताकी आप के पदचिन्हों पर चल कर हम भी नाम कमा सके। हम आप के सदा आभारी रहेगें।

Thursday, May 17, 2007

डेरा सच्चा सौदा.....बात तो सही है मगर....

मेरी बेटी और डेरा सच्चा सौदा चुनतंन जी का लेख अभी पढ कर हटा था कि मेरी भतीजी भी यही समस्या लेकर आ गई। वह अभी-अभी अपनी गेंद लेकर बाहर खेल रही थी कि उस की गेंद पड़ोस मे रहने वाले रिंकू ने ले ली ।उस ने बताया कि पहले तो रिंकू उस की गेंद लेकर उसी के साथ खेल रहा था लेकिन पता नही उसे अचानक क्या हुआ कि वह मेरी गेंद को अपनी बताने लगा है।
मैने कहा "कोई बात नही कुछ देर बाद हम उसे समझा देगें कि गेंद खेल कर वापिस कर देना।यह तुम्हारी नही है हमारी बिटिया की है। वह वापिस कर देगा।"
लेकिन भतीजी बोली-"मैनें भी यही समझा था कि वो गेंद वापिस कर देगा । लेकिन वह तो मेरी गेंद को अपनी बता कर कल सभी दोस्तो से कहेगा कि यह तो मेरी ही थी तो क्या होगा ? समय निकलने के बाद क्या मेरे दोस्त भ्रमित नही होगें ?" मेरे पास उस के सवाल का कोई जवाब नही है क्या आप बताएंगें इस का जवाब ?

Wednesday, May 16, 2007

छोटा मुँह बड़ी बात-३(क्षणिकांए)

आधुनिक गुरू

आज के गुरू
अपना प्रचार
स्वयं मीडिया द्वारा
करते, कराते हैं।

चाहें जो भी
हथकंडा अपनाना पड़े
नही कतराते हैं।

इसी लिए
ज्यादातर गुरू
असलियत खुलनें पर
मसखरे नजर आते हैं।

Monday, May 14, 2007

छोटा मुँह बड़ी बात-२ (क्षंणिकाएं)

प्रजातंत्रता

जिस देश में
कभी पति,कभी पत्नी
कभी उसका बेटा
फिर बेटे का बेटा
नेता बनेगा।

उस देश के मतदाता
महामूर्ख हैं।

वह देश
प्रजातंत्रता
कैसे जनेगा?


सुरक्षा

भ्रष्ट वोटर
हमेशा
भ्रष्ट नेता को
जिताएंगें ।
तभी तो वह
अपनी
सुरक्षा पाएंगें।


वफादार

उसे अपने
मालिक से
प्यार है।
बहुत
वफादार है।

इसी लिए
वह जब भी
अपने मालिक को
देखता है
दुम हिलाता है।

इसी लिए
कुत्ता कहलाता है।

छोटा मुँह बड़ी बात-१ (क्षणिकांए)

चिन्तन का ढंग

१.
कल हमारे मोहल्ले में
एक साइकिल पंचर हो गई
शोर मच गया-
शायद उग्रवादीयों ने की है
क्यूँकि-
साइकिल गैर मुस्लिम की थी।

२.

तुम जानते हो
कुत्ता कब पागल होता है?
मर्ज कब बिगड़ता है ?
जब सही औषधी से
निदान ना हो
या सही आदमी का
सम्मान ना हो।

३.

रोटी समस्या नही
रोटी तो बँट जाएगी
इन्सान में
इन्सानियत जब आएगी ।






Sunday, May 13, 2007

ओ माँ, तुम भी हो मतवाली



बाला की मनभावन बोली

उड़ते बाल पवन संग चोली

संध्या पर अंम्बर की लाली

बाला हँसती,मुख पर लाली

कैसी मुदित साँझ संग आली

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


आओ आँगन मे हम खेलें

माँ का प्यार मुदित हम लेलें

माँ तुम दॊडों मै पकडूँगी

अथवा तुम संग मै झगड़ूँगी

खेलो ना इक बाजी

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


किल-किल निनाद मेरा तुम देखो

चंचलता मेरी मन की पेखो

तुम हसँती तो लगता मुझको

सृष्टि सब हसँ जाती

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


बचपन की यादों मे भूला

हाथ बना तेरा, मेरा झूला

थक जाती, कभी हार ना मानी

रहती सदा मुस्काती

ओ माँ,तुम भी हो मतवाली।


घर, आँगन, बर्तन और रोटी

काम खतम कर कब माँ सोती

जान ना पाई मै थी छोटी

बस रहती थी तुतलाती

ओ माँ तुम भी हो मतवाली।

Saturday, May 12, 2007

माया की छाया

आज ज्यादातर सभी चिट्ठाकार माया पुराण की कथा बाचंने मे लगे हुए हैं।इस लिए हमनें भी सोचा,चलों आज सभी अपनें-अपने विचार रख रहे हैं तो हम क्यों पीछे रहें। सो भाई, अपना विचार तो यह है कि इस में माया की माया ने नहीं मतदाताओं की जागरूगता व होशियारी ने यह कमाल किआ है। उन्होनें आखिर तक नेताओं को भ्रम मे डाले रखा।खास तौर से सोनिया परिवार को।जिन्हे देखनें को अपार भीड़ उमड़ पड़्ती थी। सभी नेताओ के बडे-बडे दावों की हवा निकाल दी। इन मतदाताओं से अब नेताओं को सावधान हो जाना चाहिए।वह भी अब नेताऒं की कथनी और करनी का फर्क समझने लगें हैं।अगर यह चमत्कार संयोग से नहीं हुआ और मतदाता सच में होशियार हो चुका है तो आनें वाला समय़ देश को निश्चय ही प्रगति के रास्ते पर ले जाएगा।उस के लिए अब मायावती को कुछ करके दिखाना होगा। वर्ना मतदाता फिर भ्रमित हो जाएगा ।कहिए आप क्या सोचते हैं?

Friday, May 11, 2007

इस जमानें की ना करो बात....

इस जमानें की ना करो बात मुझे पीने दो
तन्हा ही ख्वाबों में मुझे जीनें दो

प्यार के बदले दिया क्या सितमगर यारों ने
ना पूछो दांस्ता-ए-इश्क होंठ सींने दो

बहुत देर में दर्दे दिल की दवा पाई है
बेवफा के लिए बहुत आँख बहाई है

अब तो दूर ही रखो इन हसीनों को
इस जमानें की ना करो बात मुझे पीनें दो।

Thursday, May 10, 2007

याद


रात के सन्नाटों में

अधमरे सायों के बीच

जब भी जग कर देखा

तुम नजर आई।


शायद यह मेरा भ्रम हो

लेकिन

तुम्हारी बातों का सिलसिला

एक कैंची बन कर

कल्पना के पंख काटकर

हकीकत मे रंगने वाला

झूठ कैसे कह दूँ-

मात्र सपना है!


नहीं

वह जो भूत के समान

सदा सिर पर सवार हो

दिल में हिलोरे मारती रहती है

तुम्हारी ही है

याद।


याद क्या है?

आज तक जाना ना था।

आज तुम्हीं ने कह दिया-

"अधूरा मिलन"


शायद ठीक कहा था

किसी ने

जीवन की सही परिभाषा-

याद ही है।

जो हम सभी को

सताती है

मिलाती है

हँसाती है

रूलाती है

भूत वर्तमान और भविष्य की

लड़ी है।

एक बार टूटने वाली

साँसों की कड़ी है

याद।

Wednesday, May 9, 2007

एक खत शहीदों के नाम

देश के शहीदो
तुमने अपनें लहू से
सींच कर
जिस देश को
आजाद कराया था।

जरा देखो
वहाँ कैसा
इंकलाब आया है।

चोर, ठग, डकैत और भ्रष्ट
नेता बन बैठे हैं।

देश सेवकों ने
ना मालूम कहाँ
मुँह छुपाया है।

Tuesday, May 8, 2007

बराबरी का हक

आधुनिक युग की
महिलाऒ
नितन्तर
संर्घष करती रहो।
नये-नये कानूनों को
ईजाद कर
पुरूषों पर गढती रहो।
कानूनों की मार से
नराधम पुरूष
कभी तो डरेगा।
युगों से अत्याचार करने वाला
खामियाजा तो भरेगा।
अब तो सांईस का जमाना है-
तुम्हें बराबरी का हक
जरूर मिलेगा।
वह दिन दूर नही
जब पुरूष भी
तुम्हारी तरह
बच्चा जनेगा।

Sunday, May 6, 2007

आंतकवादी की मौत का राज

अपने-अपनें
मजहबों के लिए
एक आम आदमी
कब लड़ता है।

जब कोई
बड़ा नेता या मौलवी
उलटा-पुलटा
भड़काऊं
फतवा गड़ता है ।

आंतकवादियों की औलाद
ऎसे लोग ही पैदा करते हैं।
जिसका खामियाजा
हम सब भरते है।

जब तक
एक आम आदमी
इनके फतवों पर
अविश्वास नही करेगा।
तब तक
आदमी के भीतर का
आंतकवादी नही मरेगा।

Saturday, May 5, 2007

यही है.....

यही है मितवा जीवन की धारा
राही अकेला ना कोई किनारा ।

बहारों के मौसम में ढूंढेगें उनको
बिछ्ड़ा हुआ क्या मिलेगा दुबारा ।
यही है मितवा जीवन की धारा
राही अकेला ना कोई किनारा ।

हरिक मोड़ पर एक चौराह मिलेगा
जाऊँ कहाँ तू समझ ना सकेगा
बहनें दे किस्ती को रूख पे हवा के
जतन से तेरे ना मिलेगा किनारा।

यही है मितवा जीवन की धारा
राही अकेला ना कोई किनारा ।

हरिक राह पर बहारें ना होगीं
हरिक चाह किसने यहाँ कभी भोगी
मासूम आँखें हँसेगी रोएगीं
तब ढूढंता तू फिरेगा सहारा।

यही है मितवा जीवन की धारा
राही अकेला ना कोई किनारा ।

गाता, हसँता था जो संग तुम्हारे
अपनी जां से कहता था प्यारे
तोड़ेगा विश्वास अभी संम्भल जा
किसी दिन करेगा तुझ से किनारा।

यही है मितवा जीवन की धारा
राही अकेला ना कोई किनारा ।

Friday, May 4, 2007

सरदार और चुटकलें


शायद इसीलिए
ज्यादातर सरदारों पर
चुटकलें बनाते हैं।
हरिक चुटकले में
उसे मूर्ख दिखाते हैं ।
इसी लिए मैनें
उनका इतिहास खंगाला
बहुत ध्यान से देखा-भाला।
जो समझा
उसे सुनाता हूँ-

इतिहास गवाह है-
जब हिन्दुओं को
जबरदस्ती
मुसलमान बनाया जा रहा था।
हर तरह से सताया जा रहा था।
उस समय़
सरदारों के
नोंवें गुरू
गुरू तेग बहादुर
दूसरों के धर्म की रक्षा हेतू
चाँदंनी चौक के चौराहे पर
अपना सिर कटाते हैं।
शायद इसीलिए
ज्यादातर सरदारों पर
चुटकलें बनाते हैं।

जब मुसलमानों के
नवाब और नवाबजादें
अपनी एय्याशीयों के लिए
अपनी ही जनता की
माँ-बहनों को उठाते थे ।
उस समय
सरदार आधी रात को
एय्याशियों मे डूबे मुगलों पर
अनायास हमला कर
उन्हें छुड़ा वापिस घर पहुचाते थे।
इसी लिए मुगल कह्ते थे-
हम इनकी माँ-बहन तो नही उठाते हैं
फिर क्यूँ ये नाहक हम से वैर बढाते हैं।
दूसरों की खातिर अपनी जान गवातें है।
क्या बारह बजें सरदारों के
दिमाग खराब हो जाते हैं ?
शायद इसीलिए
ज्यादातर सरदारों पर
चुटकलें बनाते हैं।

जब देश
गुलामी की जंजीरों में
जकड़ा हुआ था।
देश भगतों ने आजादी के लिए
अपना-अपना रास्ता
पकड़ा हुआ था।
ऎसे समय में
जलियाँ वाले बाग में
हजारों सरदार मारे जाते हैं।
हजारों काले पानी की सजा पाते हैं।
हजारों अग्रेजों से लड़ते हुए
सीनें पर गोली खाते हैं।
भगत सिहँ,उधम सिहँ सरीखे सरदार
हँसतें-हँसते फाँसी पर चड़ जाते हैं।
शायद इसी लिए ज्यादातर
सरदारों पर चुटकलें बनाते हैं।

भारत की कुल जनसख्याँ में
मात्र सवा प्रतिशत
सरदार पाए जाते हैं।
लेकिन सैना में
कुल सैना का
नौ प्रतिशत नजर आते हैं।
ना मालुम क्या सोच कर
ये सैना मे भरती हो जाते हैं ?
हँसते-हँसते वतन की रक्षा के लिए
सीनें पर गोली खाते हैं।
शायद इसी लिए ज्यादातर
सरदारों पर चुटकलें बनाते हैं।

कुछ नेताओं की
कुटिल राजनिति के कारण
कुछ कट्टरवादी सरदार
एक धार्मिक स्थल में घुस जाते हैं।
कुछ बुद्दिजीवी सरदार
उन से निपटनें का उपाय सुझाते हैं-
"धार्मिक स्थल को चारों ओर से
सैना से घेर कर
बिजली-पानी काटों।"
"भीतर छिपे कट्टरवादी अपने आप
भूख प्यास से हो बेहाल
बाहर आएगें ।"
"किसी की भावना को
ठेस भी नही पहुँचेगी
वह सब पकड़े जाएगें।"
लेकिन
राजनेताओं की ह्ठधर्मी ने
उस धार्मिक स्थल को
टैकों ऒर तोपों से उड़ा दिया।
अपने ही देश में खुद
साम्प्रदायिकता का
जहर फैला दिया।

जो लोग
अपनें ही घर में
खुद आग लगाते हैं
ऎसे लोग
अपनी लगाई आग में
खुद ही जल जाते हैं।

लेकिन
दूसरों द्वारा लगाई आग में
हजारों बेगुनाह
जिन्दा जलाए जाते हैं
अपनें ही देश में
अपनों से न्याय नही पाते हैं
इतनी तबाही के बाद भी
किसी के आगे
हाथ नही फैलाते हैं।
अपनें टूटे घरों,
धार्मिक स्थलों को
पहले से बेहतर बनाते हैं
इतना सब सहनें के बाद भी
देश की खातिर
मरने के लिए
आज भी
सब से आगे खड़े हो जाते हैं ।
शायद इसी लिए ज्यादातर
सरदारों पर चुटकलें बनाते हैं।

सरदारों के इतिहास का
एक छोटा हिस्सा खंगालने के बाद
मेरे मन में विचार आते हैं
जो लोग
देश ऒर दूसरों की खातिर
अपनी जान गँवाते हैं
आज-कल ऎसे लोग
दुनिया की नजर में
मूर्ख कहलाते हैं
शायद इसी लिए ज्यादातर
सरदारों पर चुटकलें बनाते हैं।