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Tuesday, December 11, 2012

पहचान




वक्त गुजर जाता है और सोचते रहते हैं हम।
जिन्दगी मे खुशी और पाये हैं, कितने गम।
कौन है दोस्त और दुश्मन हमारा कौन यहाँ-
रोते आए थे ,क्या  रोते हुए ही जायेगें हम।

देख दुनिया का तमाशा तुझे करना क्या है।
एक दिन मरना है तो मौत से डरना क्या है।
अपने को पहचान ले,गर सच में जीना है-
बेहोशी में गर जी लिये तो,ये जीना क्या है।

प्रेम के बदले जो, प्रेम की   चाह करता है।
अपना बन के वही दोस्त छला करता है।
प्रेमी प्रेम के बदले , कुछ चाहता ही नही-
उसी की खातिर  जीता है और मरता है।




Sunday, December 2, 2012

मन के घोड़े



ये मन के घोड़े भी आखिर कब तक दोड़ते रहेगें।एक ना एक दिन थक कर रुक  जायेगें। मगर सोचता हूँ इन के थक कर रूकने से पहले अपने असली घर पहुँच जाऊँ।ऐसी ख्वाहिश सिर्फ मेरी ही नही.शायद सभी की होती होगी। लेकिन क्या यह पूरी भी होती है?मन इस प्रश्न पर हमेशा मौन हो जाता है। जैसे वह इस प्रश्न का उत्तर हमीं से चाहता हो।लेकिन हम भी बहुत अजीब हैं ....कभी इस प्रश्न को गंभीरता से नही लेते। ऐसा लगता है कि अभी इस विषय पर इस प्रश्न पर विचार करने का समय नही आया है और हमारी जिन्दगी यूँही बीत जाती है।जब मन के घोडे़ एक ही जगह खड़े रह कर मात्र सिर हिलाते रहते हैं और हिनहिनाते रहते है उस समय तक बहुत देर हो चुकी होती है जिन्दगी के मायने ही बदल जाते है।


Saturday, November 17, 2012

यौवनागमन

मन ने ली अंगडाई।
वेदना की पीर
हो गया अधीर देख
खींची मस्तक पर रेख
बात किसने बताई  ?

कोलाहल क्यूँ  भीतर जगा
फूटा ज्यों ज्वाला मुखी
स्तब्ध कोई ठहर गया
नीर हिम-सा ठहर गया
मति किसने भरमाई ?

सोया मन जागा है
अंधियारा भागा है
या कहीं क्षितिज में
वर्षा के स्वागत को
आकाश विधुत कौंधी
क्या वर्ष रितु आई ?

प्रणय निवेदन का
स्वीकार-अस्वीकार
करने से पूर्व ही
मन अंकुर फूटा
तरूवर का फल अभी
दृश्यमान कहीं नही
काहे प्रियतमा  लज्जाई ?

जंगल मे मोर नाचा
गाँव शहर शोर मचा
बचपन का अवसान
सोया मन शैतान
मौसम भी ठहर गया
सागर भी लहर गया
जीवन मॆ अनायास
छाया है मन उल्लास
ना जाने किस दिशा से
तरूणाई आई .. तरुणाई आई।
मन ने ली अंगडाई।

Sunday, November 11, 2012

नासमझी..


ना जानें वह कैसे..
क्या क्या लिख जाती है
मै उलझ जाता हूँ अक्सर
उसके जानें के बाद।
उसके कहे को
समझने की कोशिश करता हूँ
और हर बार पाता हूँ..
वह जो कहना चाहती है...
उस के अर्थ
मेरे पास पहुँचते पहुँचते
बदल जाते हैं।
लगता है मेरे भावों को
उसके
शब्द सजाते हैं।


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उस दिन जब तुमने मुझे
अपना आखरी खत लिखा था
मैनें उसे गुस्से मे फाड़ कर
टुकड़े- टुकड़े कर दिया था
लेकिन जब रात आई तो
अकेलेपन ने मुझे उकसाया-
मैं उस खत के टुकड़े
फिर उठा लाया।
अब हर रात मैं उन्हें जोड़ता हूँ
अपनी कल्पनाओं के घोड़े पर बैठ
ना जाने कहाँ-कहाँ दोड़ता हूँ।

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Saturday, November 3, 2012

२८ सालों से...

 

२८ सालों से
न्याय ...........
सत्य को खोज रहा है
नामालूम क्यों 
अब ऐसा लगनें लगा है-
शायद सत्य की भी हत्या हो चुकी है
या फिर वह किसी कालकोठरी में
अंनजान जगह बन्दी बना दिया गया है...
कहीं कोई आवाज नही उठती...
कहीं कोई अकुलाहट नही होती...
अब तो आँखों के आँसू भी सूख चुके हैं....
लेकिन बहुत भीतर अभी भी
रह -रह कर एक टीस-सी उठती रहती है
जो दुस्वप्न बन रातों को जगा देती है..
भटकती रूहें आज भी वैसे ही चीत्कार कर रही हैं..
शायद कोई उनकी की आवाज सुन ले...
लेकिन 

शायद वे जानती नही हैं...
यहाँ अधिकतर बहरे रहते हैं
और जो सुन सकते हैं वो गूंगे हो चुके हैं
.........................................
.............................
....................................


Sunday, October 21, 2012

जब जीवन में.....


जब जीवन में
सिर्फ मस्ती ही
नजर आये
हर कोई गीत गाता नजर आये
तुम समझ लेना-
तुम्हारा बचपन
अभी मौजूद है।


जब जीवन मे
वास्तविक प्रश्न
भूलें रहें
और तुम्हें हर तरफ
सैंकड़ो रास्ते नजर आते रहें
तब तक तुम समझना-
कि तुम अभी जवान हो।


जब जीवन के
वास्तविक प्रश्न
सामने आ कर
खड़े हो जाये तो
समझ लेना चाहिए-
अब हम बूढे हो गये हैं।


जब जीवन में
कोई प्रश्न ना रह जाये
बस एक ही चाह हो-
"तुम्हारी बात रखी जाये"
तब समझ लेना-
तुम सठिया गये हो।


Monday, September 24, 2012

दो सच्चाईयां....



जब भी कोई सच बोलता है
जो कभी सही लगता था।
वह भी गलत लगने लगता है।
सोचता हूँ -
या तो सच सुनना छोड़ दूँ
या फिर सोचना छोड़ दूँ।
लेकिन मेरे छोड़ देने से
कुछ बदल तो ना जायेगा।

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किसी ने मुझसे पूछा-
आदमी और जानवर में 
क्या अंतर है?
बहुत सोचने के बाद भी
फर्क नही कर पाया।
दोनों एक-से लगते हैं।
इसका जवाब 
एक बच्चे ने दिया-
"सिर्फ पूँछ का।"

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Monday, August 27, 2012

खुशी का राज..



वीरानें दिल मे भी कोई रहता है।
जो हवा का झोंका बन बहता है।
छू के मुझको जब निकलता है-
मुझे साँसों में भर लो कहता है।

चलो किसीको मेरा इंतजार तो है।
कोई भी हो हमें उससे प्यार तो है।
भले  देखा नही कभी मैनें उसको-
लगता है आस-पास कहीं रहता है।

वीरानें दिल मे भी कोई रहता है।
जो हवा का झोंका बन बहता है।

उन्हें शिकायत थी अकेले रहते हैं।
फिर भी खुश है क्यों हम कहते हैं।
खुशी का राज तुम जान लो आज-
तेरी साँसों के साथ वो भी बहता है।

वीरानें दिल मे भी कोई रहता है।
जो हवा का झोंका बन बहता है।


 

Wednesday, August 15, 2012

ये कैसा वतन ये कैसी आजादी......


 



ये कैसा वतन 
ये कैसी आजादी ।
मरती है भूखी ...
जनता बेचारी ।
किसे फिक्र है 
अपने सिवा यहाँ,
क्या देखी कभी है, 
ऐसी लाचारी ।

हरिक शख्स 
परेशां-सा 
यहाँ जी रहा है।
महँगाई, भ्रष्टाचार 
अन्याय पी रहा है।
जो कुर्सी पर बैठा
 है वतन का सिपाही,
मेरे इस वतन का 
कफन-सी रहा है।

जनता को फुर्सत 
कहाँ है  दोड़नें से 
तुम पीछे रहे तो 
ये गल्ती तुम्हारी।
छल से, बल से ,
बस आगे है रहना
वतन को ना जानें, 
कैसे लगी ये बीमारी ।

ये कैसा वतन 
ये कैसी आजादी ।
मरती है भूखी ...
जनता बेचारी ।

Saturday, August 4, 2012

मुक्तक



रात है सुनसान दीपक हवा से लड़ रहा।
कौन जीतेगा यहाँ दूर से कोई तक रहा।
तेरी मर्जी हो तो यह सुबह देखेगा जरूर-
आस में बैठा हुआ कोई बाट तेरी तक रहा।

Tuesday, July 24, 2012

जिस्मानी और रूहानी प्रेम

 

 

 प्रेम की कसोटी

तुम मुझ से
कोई प्रश्न मत पूछना
मैं भी तुमसे 
कोई प्रश्न नही पूछूँगा...
मुझे बस!
तुम्हारा उत्तर चहिए। 
जो हम दोनों के लिये हो।


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तुम्हारा ख़त
मैनें आज भी
संभाल कर रखा है
मैं रोज उसे पढता हूँ
हर बार कुछ नया
पढ़नें को मिलता है..
क्योंकि तुम्हारा ख़त
शब्द की सीमाओं में
बँधा हुआ नही है
 और मैं भी उसे
आँखों से नही पढ़ पाता।


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जिस्मानी और रूहानी प्रेम 
दोनों में बहुत फर्क है।
जैसे मृत्यू और अमरता में।
एक प्रेम बंधन है 
दूसरा मुक्ति।
लेकिन इन्सानी स्वाभाव...
वह पहले उसे ही चुनता है...
जिसका उसे स्पर्श  महसूस हो सके 
आँखों से दिखाई दे...
क्योंकि वह स्वयं 
जिस्मानी बधंन में बँधा हुआ है.....
लेकिन एक दिन ऐसा 
जरूर आता है जीवन में....
जब नदी अपने तटों को तोड़ कर...
स्वछंद विचरना चाहती है.... 
यही  आकुलता 
उसे ले जाती है 
उस प्रेम के सागर की ओर...
जहाँ पहुँचकर 
नदी अपना स्व विस्मृत कर....
खो जाती है जहाँ उसे खोना चाहिए...

हरिक सीमा कहीं आकर टूट ही जाती है.....
जहाँ पहुँचकर उसे टूटना चाहिए

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Monday, July 9, 2012

क्या करें........




इक दिन आना है उसे क्या इंतजार करें।
बेरंग जिन्दगी में ,   चलो कोई रंग भरें।
वैसे भी हमे मंजिल का कोई पता नही,
बस! चलो,चलना है , रुक के क्या करें।

ठहर पाया है कौन , इक पल   भी यहाँ।
साँसो की डोरी,वक्त, रूकता है कब कहाँ।
जब कुछ नही है हाथ तेरे कोई क्या करे-
बस! इंतजार करता रहता है ये  जहां।

Tuesday, June 26, 2012

पिता की याद में



वो मर के भी मेरी,आँखों में बस गये।
आँख मूँदनें से पहले ,  देख हँस गये।

ताउम्र इस अदाको समझना हुआ मुश्किल,
जाने से पहले मुझको वो कैसे कस गये।

सोचता रहता हूँ ..हँसी का है राज क्या।
लौटकर आयेगें क्या ऐसा कुछ कहा।

आज भी राह तक रहा हूँ यार, तुम्हारी ,
क्यूँ छॊड़ तन्हा ,जहां से तू चला गया।

गुरू दोस्त सारथी मेरा आसरा थे तुम।
बीच रास्ते पर छॊड़ क्यों हुए तुम गुम।

बहार आने को थी कुछ ठहर तो जाते,
क्या कमी थी प्रेम में जो ऐसे डस गये।

वो मर के भी मेरी,आँखों में बस गये।
आँख मूँदनें से पहले ,  देख हँस गये।

Monday, June 4, 2012

तीन अनुत्तरित प्रश्न




अनुत्तरित प्रश्न-१

हर खेल
जीतने के लिये
खेला जाता है।
फिर क्यूँ.....
हम अपने जीवन को
हार कर जाते हैं ?
अंत मे अपने को
अकेला पाते हैं।

अनुत्तरित प्रश्न-२

अपनी थाली का लड्डु
हमेशा छोटा क्यों लगता है?
इंसान के मन में
ऐसा भाव क्यों जगता है ?


अनुत्तरित प्रश्न-३

इन्सान किस लिये आता है?
फिर कहाँ चला ये जाता है?
जीवन -भर दोड़ लगाता है।
दोड़-दोड़ थक जाता है।
कहीं पहुँच नही पाता है।
खुशी मे मुस्कराता है।
गम में आँसू बहाता है।
बेमतलब के इस जीवन को,
फिर भी जीना चाहता है।



Sunday, May 20, 2012

मरी हुई उम्मीदे



ये कैसे लोग दिख रहे हैं वतन में मेरे
नश्तर -से चुभोते हैं ये बदन पे मेरे।
किससे करे शिकायते थानेदार हैं वो-
कोहराम -सा मचा है अमन में मेरे।

कोई सुनता नही किसी की बात यहाँ
देश भक्त बन बैठे है घात लगाये यहाँ
अब कौन बचायेगा इन जयचंदों से..
उम्मीद दम तोड़ चुकी लगता है यहाँ।

जनता भेड़ चाल चलने की आदी है
गजब की बढ रही यहाँ आबादी है
कत्ल करने वाले यहाँ पद पाते हैं
इसी राज मे छुपी देश की बर्बादी है।



Tuesday, May 1, 2012

तुम्हारा हाल क्या पूछे....



तुम्हारा हाल क्या पूछे अपना हाल तुम-सा है....
हरिक दोस्त भी अपना खुद में आज गुम-सा है।

मोहब्बत मे वफा वादे कसमें कौन समझा है ।
गुल के साथ खारों को यहाँ पर कौन समझा है।
बहारों की तमन्नायें यहाँ हर दिल में खिलती है,
मौसम एक-सा रहता नही ये कौन समझा है।

उन्हें उम्मीद है , दिन आज नही कल बदलेगें ।
गिरे हैं आज तो क्या है हम कल तो संभलेंगें।
रास्तों  मे नदी नालों पहाड़ों   का बसेरा   है,
आयेगा जब वक्त अपना रास्ते भी तो सँवरेगें।

रही किस्मत हमारी तो खुदा मेहरबां होगा।
दोस्तों में  अपना भी कोई तो कद्र-दां होगा ।
मोहब्बत को समझेगा वफा़यें मेरी समझेगा,
जहां में  कहीं  कोई अगर फटेहाल मुझ -सा है।

तुम्हारा हाल क्या पूछे अपना हाल तुम-सा है....
हरिक दोस्त भी अपना खुद में आज गुम-सा है।

Sunday, April 22, 2012

कोई गलती...


उदास रात गई उदास दिन भी है-
ये कैसी जिन्दगी जी रहे हैं हम।
बहुत दूर  हैं ......मंजिलें अपनी-
साँसों की सौगात लगती है कम।

उदास रात गई उदास दिन भी है-
ये कैसी जिन्दगी जी रहे हैं हम।

मगर जीना होगा चलने के लिये-
सुख-दुख का रस पीनें के लिये।
किसी और की मर्जी लगती है-
बदल सकेगें ना .. इसको हम।

उदास रात गई उदास दिन भी है-
ये कैसी जिन्दगी जी रहे हैं हम।

बहुत सपनें सजाये थे ... हमनें-
कदम-कदम पर रूलाया गमनें।
अपना बोया ही काटना है यहाँ-
कोई गलती क्या कर रहे हैं हम।

उदास रात गई उदास दिन भी है-
ये कैसी जिन्दगी जी रहे हैं हम।

Wednesday, April 11, 2012

उजाला


गई रात देखो
सिमटा अंधेरा
उजाला हुआ है
फिर जिन्दगी में।

चलो! पक्षीयों से
गगन में उड़े हम,
देखे कहाँ पर
खुशीयां पडी हैं।
है कौन-सी वो
धरा यहाँ पर
गर्भ मे जिसके
खुशीयां गड़ी हैं।

चुनने को आजाद
है अपना मन भी।
जो चाहो चुनों तुम
खुशी है तुम्हारी।
दुखों की कमी कोई
नजर नही आती।
खुशीयां सभी को
बहुत हैं सुहाती।

मिला कब है चाहा
किसी को यहाँ पर।
फिर भी उम्मीद
हरिक मन  सजी हैं।
पर को परास्त
करनें की चाहत।
भीतर तेरे औ’ मेरे
भी जगी है।

छोड़ो मन इस
आपाधापी का संग्राम,
किसी को भला क्या
इसने दिया है।
स्वागत करों तुम
किरण ने छुआ है।
जगी हैं उमंगें
इस रीते मन मॆं।

गई रात देखो
सिमटा अंधेरा
उजाला हुआ है
फिर जिन्दगी में।

Friday, April 6, 2012

वीर तुम बढे चलो .....





वीर तुम बढे चलो फकीर तुम बढे चलो।
वोट तुम अपना सदा, भ्रष्टाचारीयो को दो।

Monday, March 19, 2012

मन की तरंग



जब रोशनी होती है
मै तुम्हें भूला रहता हूँ
जब अंधेरा होता है 
तुम याद आते हो।
क्या तुम हरेक को- 
ऐसे ही सताते हो? 
या तुम ऐसे ही आते हो 
और 
ऐसे ही जाते हो ?
बस! यही बताते हो ?
और 
हर बार की तरह
बिना मिले ही
लौट जाते हो ?
तब तो तुम मत आया करो।
मैं प्रतिक्षा करता रहूँगा।
समय तो गुजर जायेगा।


*******************


तलाश तो सभी रहे हैं तुम्हें
अपने आस-पास
लेकिन
अपने भीतर जाने को 
कोई तैयार नही।
डर लगता है-
कहीं "मैं" ना खो जाये।
इस "मैं" ने मुझे -
कहीं का नही छोड़ा।
अजीब है ये "मैं" का घोड़ा-
कोई इससे नीचे
उतरना ही नही चाहता।

*********************




Monday, February 27, 2012

सब अपने लिये.....


 १
आँख देखती है
दिल को कोई अहसास नही होता।
इसी लिए अब
कोई प्यार का घर आबाद नही होता।



चाहतें तो बहुत हैं
सब पूरी कर लेंगें एक दिन ।
ये अलग बात है-
उन चाहतों में कोई दूसरा ना होगा।


आने को कहा था 

पर नही आये
अब इस बात पर खुशी होती है।
किस किस से बाँटते अपनी खुशी
अपनी तो 

खुशी में भी आँख रोती  है।


यहाँ कोई 
किसी के लिये नही जीता।
यहाँ कोई 
किसी गम में नही पीता।
कुछ को शौक है
कुछ को आदत है यहाँ।
वर्ना दिल तो सभी का
सदा रहता है रीता।


Wednesday, February 15, 2012

मुक्तक

यहाँ कोई किसी के लिये नही जीता।
गम भुलाने के लिए कोई नही पीता।
पीने वाला कोई बहाना ढूंढ लेता है-
क्यॊ कि हर रंग उसे लगे है फीका।

Monday, January 30, 2012

बेशर्मी की हदे.......

वह इस लिये
तड़प रहा था 
प्यास के कारण
क्योकि उसके भीतर
वादाखिलाफी देख कर
आग लगी हुई थी
और आज वह 
पाँच साल बाद 
फिर लौट आया है
उससे अपना समर्थन माँगने।
बेशर्मी की हदे .......
पार करना
इसी को तो कहते हैं।

Sunday, January 22, 2012

ना जानें क्यों....


ना जाने क्यों ....उदास हो गई रातें मेरी।
दिलमें वही तस्वीर लिये घूमता हूँ तेरी। 

लोग कहते हैं -  जी भर गया होगा मेरा
दिखती नही अश्कों से भरी आँखे मेरी?


मै दरबदर तलाशता हूँ जमानें मे तुझे।
ना जाने क्य़ूँ   भूलकर  बैठा हैं तू मुझे।

लोग कहते हैं -  हर  शै में समाया तू है
फिर क्यूँ खा जाती है नजरें धोखा मेरी।


ना जाने क्यों ....उदास हो गई रातें मेरी।
दिलमें वही तस्वीर लिये घूमता हूँ तेरी।

Wednesday, January 18, 2012

पत्थर और आदमी



पत्थर और आदमी में
अब फर्क नज़र आता नही।
इस लिये दिल से यहाँ ,
कोई गीत अब गाता नही।
खामोश है यहाँ हर नजर, 
आकाश में उठती हुई -
उडता हुआ कोई परिंदा ,
नजर अब आता नही।
सोचता हूँ गीत यहाँ 
किसके लिये अब गाँऊ मैं,
गीत अपना अपने को,   
अब जरा भाता नही।
पत्थर और आदमी में
अब फर्क नज़र आता नही।