Wednesday, January 16, 2008

जीवन-चक्र

सुबह

आँखें खोली

किसी ने एक वृत

मेरे आगमन से पूर्व बनाया

और मुझ से कहा-

इस वृत की रेखा पर दोडों

और इस का अन्त खोजों

अब मैं इस वृत की रेखा पर

और मोसम

मुझ पर दोड़ता है ।

Tuesday, January 15, 2008

सपना

इस दोड़ में,

ना मालूम क्या सोच कर,

तुम दोड़ शुरू करते हो?

जिसका खामियाजा़

नफरत से भरते हो।



हम कभी आगे होगें,कभी पीछे,

कभी ऊपर होगें, कभी नीचे,

हरिक पीछे वाला,

आगे वाले पर षड्यंत्र रचने का,

आरोप लगाएगा,

ऐसी दोड़ का क्या फायदा?

जो भाईचारा मिटाएगा।



इस दोड़ से बेहतर है,

कोई मिलकर कदम उठाएं,

जो आहत ना करे किसी को,

सब के मन को भाएं।



लेकिन ऐसी बातों को,

कौन अब मानता है?

अब आगे बढ़्नें की अभिलाषा में,

कौन कब कुचला गया,

यह बात जानता है?



तुम कहते हो-आज मौज,

मस्ती,सुविधाओं का संग्रह,

सब सुखों को समेंटते जाना,

यही है असली जीना।

जैसा चाहो वैसा ही खाना-पीना।



तुम आज प्रकृति को,

अपने अनुकूल बनाना चाहते हो।

तभी तो हरिक कदम पर,

अपनों का लहू बहाते हो।

हरी-भरी धरती को,

बंजर बनाते हो।

ऐसा कर तुम

क्या सु्ख पाओगे

प्राकृति के विरूध जाकर,

अपने को गवाँओगे।



यदि सच में सुखी होना चाहते हो तो,

अपनें को प्राकृति के अनुकूल कर लो,

एक सुन्दर -सा रंग तुम भी भर दो।

एक सुन्दर-सा रंग तुम भी भर दो।

Sunday, January 13, 2008

हारा हुआ आदमी


"मैं’
आसानी से
छोड़ा जा सकता तो,
सभी सुखी होते
आज के
इंसान की इंन्सानियत देख,
नही रोते।
"मैं"को मारनें से पहले
आदमी मर जाता है।
इसी लिए
हरिक आदमी यहाँ,
"मैं" को पालता पोस्ता है
जबकि उसी के हाथों
दुख पाता है।

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हार जाता जिन्दगी से जब कभी इंन्सान ।

दूसरों से हो खफा, बन जाता है हैवान ।

अपना पराया कोई, आता नही नजर,

तब जीतने की चाहमें, बिक जाते हैं ईमान ।


Sunday, January 6, 2008

मुक्तक माला-१०



१.


एक डोर मे पिरोये हैं मोती उसने।

दोस्ती नाम है उस की बनाई माला का।

हमे क्यों ना हो ऐतबार तुम पर ,

बंदा में भी हूँ उसी पाठशाला का।

२.


ज्यादा बोलनें से कोई अच्छा नही होता

ऊचाँ बोलनें से कोई सच्चा नही होता

भीड़ जहाँ हो वहीं सच हो, यह जरूरी तो नही,

ऐसी सोच रखना यारों, अच्छा नही होता।

३.


अब तो सच का साथ देने से भय लगता है।

अपनें कमजोर होनें का एहसास जगता है।

इसी लिए भीड़ मे भी लुट जाता है, कोई,

किसी के दिल में शोला नही भड़कता है।

४.


जब सभी रिश्ते ही बेमानी होने लगें।

जब जानबूझ कर नादानी होनें लगे।

तब हमें झूठ ही सच नजर आएगा,

ताजुब ना करना हरिक आँख रोनें लगे।