Saturday, November 24, 2007

बधाई संदेशा!!!


गुरु नानक देव जी के पावन अवसर पर सभी भाई-बहनों
को मेरी ओर से बहुत-बहुत बधाई॥

Thursday, November 22, 2007

ना जानें क्या......

ना जानें क्या
अतीत में
ढूंढता है मन मेरा।
उन खंडरों के बीच,
ना मैं हूँ,
ना कोई घर मेरा।

पर जोह रहा हूँ बाट कब से
उसके आनें की सदा।
आएगा या ना आएगा तू ,
देखता रस्ता तेरा।

टूट कर पत्तें गिरें,
जो भी, पीलें हो गए।
वृक्ष से हो कर जुदा,
जा कर कहीं पर सो गए।

कल हाल अपना भी यहीं,
होना है,मन जानें सदा।
दुनिया की फुलवारी से जैसे,
फूल होते हैं जुदा।

ना जानें क्या
अतीत में
ढूंढता है मन मेरा।
उन खंडरों के बीच,
ना मैं हूँ,
ना कोई घर मेरा।

Wednesday, November 21, 2007

क्षणिकाएं

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एहसान
तुम मेरी बात पर
कभी ना नही कहना।
मेरे बोझ को सदा
अपना समझ
सहना।

२.
सरकार
वादे और सपनें बेचनें की कला
सिर्फ
अपना भला।

३.
नेता
कुत्तों का मालिक
जनता का लुटेरा
एक बड़े घर में
जबरन
डाले है डेरा
४.
वामपंथी
इन के झंडें का रंग लाल
इन के मुँह का रंग लाल
इन का भोजन का रंग लाल
फिर भी कुर्सी पर बैठें हैं।
इसे कहते हैं हमारे देश में
प्रजातंत्र
है ना कमाल!!!

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Tuesday, November 20, 2007

इंतजार

उन सपनों का मैं क्या करूँ

जो अधूरे ही रह गए

किस का कसूर था या रब

जो आँसू बन कर बह गए।



अब रास्ता बदल-बदल कर

उन्हें ढूंढता रहता हूँ

अपनी मर्यादाएं तोड़

नदी-सा बहता हूँ।



अब संग चलनें को

तैयार कोई नही होता

अब मेरे गम से यहाँ

कोई नही रोता।



यदि मेरे अधूरे सपनें

किसी को कहीं मिल जाएं

किसी आँगन में वह फूल

कहीं खिल जाएं

तो मुझ को उस की

खबर कर देना

Saturday, November 17, 2007

आज किस बात पर तुझे रोना आया


कुछ तो थी बात तेरी खामोशी में

मिलते वक्त तुझे क्यूँ रोना आया।

तुम तो हरिक बात पर मुस्कराते थे

आज किस बात पर तुझे रोना आया।


याद आई मिलन की रातें तुझे

या फिर वो प्यार भरी बातें तुझे

या कोई टूटा सपना तुझे फिर याद आया।

आज किस बात पर तुझे रोना आया।


कुछ तो है बात तेरे दिल में मगर

बात वो लब पे तेरे क्यूँ कर,आती नहीं

बहुत कोशिश की जरा मुस्काओं तुम

लब पे मुस्कराहट तेरे क्यूँ कर यारा, छाती ही नही।


तूने मुझ को कभी खामोश ना रहनें दिया

इक कतरा मेरी आँख से बहनें ना दिया

मेरी हँसी की खातिर,दुख में भी तू मुस्काया।

आज किस बात पर तुझे रोना आया।


मूझे ये मार डालेगी तेरी, खामोशी

सूनी आँखें मॆं तेरती ये, तेरी बेहोशी।

कॊई बताओं मेरे यार पे कैसा गम छाया।

आज किस बात पर तुझे रोना आया।


Thursday, November 15, 2007

टेस्ट पोस्ट


जब वासना ही प्रेम........

जब वासना ही प्रेम कहलाएंगी।

तब रिश्तों मे टूटन तो आएगी॥



किससे शिकायत करे आदमी,

जब धन आदमी की पहचान हो।

नंगे होनें में क्या शर्म है,

जब धन आदमी का ईमान हो।

इज्जत की रोटीयां जल गई,

जब चाहिए सभी को पकवान हो।



जब रहे दो-दो आदमी एक में,

आदमी की कैसे, पहचान हो।

जो अपनें लिए साधू बन गया

दूसरे के लिए, वही शैतान हो।

देख-देख मुझे आज यह है लग रहा

कही बदला हुआ ना भगवान हो।



अब ढूंढेगा प्यार यहाँ कहाँ,

बातें यह किताबों में रह जाएगी।

जब गरीब को भूख सताएगी

रो-रो के दुखड़ा सुनाएगी

जब वासना ही प्रेम कहलाएंगी।

तब रिश्तों मे टूटन तो आएगी॥

Wednesday, November 14, 2007

सच्चाई



हवाओं मे बहती
खुशबू लगता है
बहुत दूर से आ रही है
शायद कहीं फूल खिले हैं
या फिर दो दिल मिले हैं।


क्या तुम्हारे आस-पास
यह महक कभी नही बही?
किसी ने यह बात
तुमसे नही कही?


आप ठीक समझे!
यह कल्पना की उड़ान है
वास्तव में तो आस-पास
उफान ही उफान है।

Monday, November 12, 2007

समाजवाद

कभी-कभी ऐसा होता है कि हम दूसरों को पढ़ कर उन से कुछ खना चाहते हैं।लेकिन कई बार हमारे कहनें का ढंग बदल जाता है...हम जिन शब्दों को कहना चाहते हैं...वह शब्द बदल जाते हैं...और कविता का जन्म हो जाता है....यहाँ पर जो रचना है वह ऐसे ही लिखी गई है..यह टिप्पणी करते समय लिखी गई एक रचना है... आप भी पढ़े...

जी हाँ,

ब नदियां

मैदान में

गंदा नाला बनती जाएगीं

जब हमारे तुम्हारें हाथों से

ऐसी फैलनें वाली

गंदगी खांएगीं।



भविष्य तो

ऐसा ही होना था।

यही तो रोना था


तरक्की के नाम पर

फैलता यह गंद

धीरे-धीरे

हम सब में भी

भरता जा रहा है।

अब ऐसा ही

समाजवाद आ रहा है।

Thursday, November 8, 2007

अपनी-अपनी दिवाली



पता नही क्यों कई बार मेरा मन त्यौहार के दिन खास कर दिवाली के दिन परेशान -सा हो जाता है।...कारण यह है कि मुझे धूएँ से बहुत परेशानी होनें लगती है। आँखों मे जलन -सी होने लगती है..धूँए की गधं से उबकाई आनें लगती है। जिस कारण दिवाली का मजा उठानें की बजाए मैं घर में ही बैठा रहता हूँ। इस बार एक और वजह से भी दिवाली फीकी लग रही है...कोई अपना दिवाली से कुछ पहले अलविदा कह कर हमेशा के लिए अंधेरों मे खो गया है।ना मालूम कितने घर ऐसे होगें जहाँ अंधेरा रहेगा\...एक खबर यह भी थी की ग्वालियर में..एक दिवाली मेले का शुरू होने से पहले ही आग में जल कर स्वाह हो गया।



लेकिन आप सभी जमकर दिवाली मनाएं।आप सभी को दिवालली की ढेरों बधाईयां।






दीया जला कहीं दिल जला कहीं जल गया आशियाना।



रोशनी तो एक है पर अलग-अलग है बहाना।



जो लिखा किस्मत में तेरी वही तू पाएगा,



कोई हँसे,रोए,आए-जाए यूहीं चलता रहेगा जमाना।

Wednesday, November 7, 2007

बिना प्रयास


नामालूम तुम
कहाँ से उतर कर आती हो?
बिखर-बिखर जाती हो
भावों के मोती बन
एक माला-सी बन जाती हो।


जबकि मैनें तुम्हें
कई बार गहरे सागर में
डुबकी मार कर खोजा।
बियाबान जंगलों मे
बहुत लोचा।
तुम्हारे बारे में
अपनें भीतर
उतर-उतर कर
कितना सोचा।
आस-पास खॊज-खोज कर
हार गया।


लेकिन
मेरा प्रयास व्यर्थ
हो जाता है।
मन बहुत झुँझलाता है।
तुम्हारा चमकते हुए प्रकटना
हर बार मुझे
अचंभित कर जाता है।
जब बिना प्रयास
मन मेरा गाता है।
कविता का
जन्म हो जाता है।

Tuesday, November 6, 2007

पछतावा


सिर्फ


माननें से



क्या होगा



जिसे कभी



जाना नही।



ऐसे रास्ते पर


चलने से क्या होगा



जो कहीं पहुँचता नही।



जो भी करें



अंतत: बहुत पछताते हैं



क्यूँकि



हम कभी



अपने भीतर



उतर नही पाते हैं।

Sunday, November 4, 2007

सच्ची बात

सच्ची बात पढनें के लिए कृपया साधना पर किलकाएं।

Saturday, November 3, 2007

मुक्तक-माला-८



जख्म पर जब कोई मरहम लगाता नहीं।
प्यार से जब कोई अपना सहलाता नहीं।
ताकता है वह शख्स,अपने चारों ओर,
दर्द बढता है,वह भूल पाता नहीं।


तारीखें आँखों में आसूँ, भर जाती है।

आजाद शैतानों को देख डर जाती है।

जब तक ना आजाद यह शैतान मरेगा,

नामालूम किसकी फिर बारी आती है।




Friday, November 2, 2007

वो जिन्दा जलता इंन्सा.......




वो जिन्दा जलता इंन्सा फिर याद आ रहा है।

इंन्सा के भीतर का शैतान सिर उठा रहा है।


हे कौन जो इनके दिलों को प्यार से भर दे,
खुदा, संम्भाल इन्हें, ये कहाँ को जा रहा है।

दर्द के मारों को न्याय मिल नही रहा है।
शर्मसार कोई यहाँ, कब कोई हुआ है?

कुर्सीयों का खेल सभी खेलते हैं लोग,

आज इंन्सान को इंन्सा, कैसे खा रहा है।

क्या मिलेगीं मुक्ति कभी, मेरे देश को इनसे?

हैवानियत का खेल जो, मासूमों से हैं, खेलें।

कोई बुलाओ ईसा,अल्लाह,राम ,वाहगुरू को!

अपनी बनाई दुनिया को अब आ के वही झेंलें।

मै नासमझ हूँ, जानता नही, किस का है कसूर?

इंन्सा इसी लिए , तुझे नीचें बुला रहा है।


वो जिन्दा जलता इंन्सा फिर याद आ रहा है।

इंन्सा के भीतर का शैतान सिर उठा रहा है।

1984 के कुछ मनहूस यादें जो इंन्सानियत को शर्मसार करती रहेगी!

1984 के कुछ मनहूस यादें जो इंन्सानियत को शर्मसार करती रहेगीं!...यहाँ

किलकाएं-इंकलाब