Friday, September 26, 2008

आज का आदमी

धर्म से दूर होता जा रहा है आदमी।
इस लिए आदमी को, खा रहा है आदमी।
भेजा जिसनें तुझ को यहाँ ए- आदमी,
उसी को भूलता क्यूँ जा रहा है आदमी।

आपसी होड़ में आगे रहनें की चाह में,
कुचलता जा रहा है पैरों तले यह आदमी।
अपने-पराय का नही कोई भेद है,
अपनों को निगलता जा रहा है आदमी।

धन की भूख ने भुलाए रिश्ते सभी,

हर जगह सेंध लगाता, आदमी।

ना जानें कहाँ खॊई, इन्सानियत,

जानवर से भी बदतर हुआ, आदमी ।


धर्म से दूर होता जा रहा है, आदमी।

आदमी को, खा रहा है आदमी

Saturday, September 20, 2008

नजरिया

मेरा सच
तुम्हारा भी सच हो
यह हमेशा जरूरी तो नहीं होता।
रोना बच्चों का स्वाभाव है।
लेकिन
सिर्फ भूख के लिए -
हर बच्चा तो नही रोता।

Tuesday, September 16, 2008

यही सब का लेखा है

सहलाने के बहानें जब कोई जख्म कुरेदे।


इंसानियत के नाम पर, कोई शख्स है खेले।


निभाए रस्म बुझाने की, लगा कर पहले आग,


आज दिख रहे हैं यहाँ, लगे ऐसे ही मेले।



चलना सम्भल के दुनिया के रंग निराले।


हर साधू ने शैतान, यहाँ अपने हैं पाले।


धोखा ना खाना देख चेहरा इंसान का यहाँ,


जानवर बनने लगे पहन, आदमी की खालें।



हो सकता है कभी तुझे, मिलाहो कोई अपना।


उसको भुला दे यार, समझ मीठा-सा सपना।


जब तलक है मतलब, तेरे साथ चलेगा,


मतलब जो हुआ पूरा, राह पकड़ेगा अपना।




हमनें तो हरिक को, रोते यहाँ देखा है।


मुस्कराते चहरों के पीछे, दर्द को देखा है।


इक अधूरापन लिए सब जीते-मरते हैं,


कोई माने या ना मानें, यही सबका लेखा है।

Thursday, September 11, 2008

बेचारा !

यह एक बहुत पुरानी रचना है जो कभी बचपन में लिखी थी।वही आज यहाँ लिख रहा हूँ।वास्तव में यह वह पहली रचना है जो कभी किसी छोटी-सी पत्रिका में प्रका्शित हुई थी और जिस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी वह शायद साल दो साल बाद बंद भी हो गई थी।लेकिन फिर भी इस के प्रकाशित होनें के बाद ही मुझे कविताएं लिखने का शोक पैदा हुआ था। जो आज तक बरकरार है।


ये धरती के छंद

जिनकी गति है मंद

चलते हैं आहिस्ते-आहिस्ते

मुख में गीत गाते

गम के हो या खुशी के

बस एक पंक्ति दोहराते

अंधे विवेक का मानव

अंधियारों के डिम्ब जाल में

उतर गया है या

फँस गया

बेचारा!

Friday, September 5, 2008

"मन नंगा तो हर नारी से पंगा " लेख पर आई कुछ टिप्पणीयों पर विचार

शास्त्री जी के लेख से प्रभावित हो कर जो लेख लिखा मन नंगा तो हर नारी से पंगा ,उस पर कुछ टिप्पणीयां आई हैं। उन को पढ़ कर कुछ नए विचार मन में उठने लगे हैं।यहाँ एक बात स्पस्ट करना चाहूँगा कि यहाँ अपनें विचार प्रकट करनें का अभिप्राय यह नही है कि किसी की सोच से सहमति या असहमति जताई जाए।बल्कि हम तो चाहते हैं कि इस का कोई हल निकले।हमारी सोच को कोई नई दिशा मिले।जिस से नर-नारी के संबधों मे बड़ती दूरी को कुछ कम किया जा सके।शास्त्री जी ने सही लिखा है इस पर खुल कर चर्चा होनी चाहिए।
ई-गुरु राजीव जी की टिप्पणी पढ कर लगा कि शायद उन की बात काफी हद तक सही है।क्यूँ कि नंगा पन तभी नजर आ सकता है जब कोई उसे दिखाना चाहता है। इस टिप्पणी को पढ कर एक पुरानी याद ताजा हो आई। बात तब की है जब हम एक सरकारी कालोनी में रहते थे।हमारे घर से कुछ घर छोड़ कर एक पंडित जी का घर था।उन की चार बेटियां थी।एक का तो विवाह हो गया था,लेकिन बाकी की तीन वहीं रहती थी।ऐसी स्थिति में जैसा अक्सर होता है।उन के घर के आस-पास अक्सर लड़के किसी ना किसी बहानें से मडराते रहते थे।इस लिए उन लड़कियों से छेड़छाड़ का सिलसिला अक्सर चलता रहता था।कालोनी के लड़के जब भी मौका पाते थे उन मे से बड़ी व छोटी पर अक्सर छीटाँकशी करते रहते थे।लेकिन उन्हीं की बीच वाली बहन को, जोइक उन दोनों से ज्यादा सुन्दर थी।उस को कोई भी नही छेड़ता था।जब भी कोई लड़का उसे सामनें पाता था तो एक्दम चुप हो जाता था या फिर सिर झुका कर दूसरे रास्ते खिसक लेता था।काफि समय तक तो उन लड़को के इस व्यवाहर का कारण मुझे समझ ही नही आया।जब मैनें इस बारे में लड़को से पूछा तो उन्होंनें कहा- यह बहुत शरीफ लड़की है।यह जब भी हमारी ओर देखती है तो हमे ऐसा आभास होता है कि जैसे हमारी बहन देख रही है।इसी लिए उसे छेड़नें की हिम्मत किसी को नही पड़ती।
उस समय सोचनें को मजबूर हो गया कि कहीं ऐसा तो नही है कि हमारे मन पर दूसरों के मन व भावों का कोई चुंबकीय प्रभाव पड़ता है। जो हमें यह आभास कराता है कि फंला लड़्की दूसरों को आकृषित करनें के लिए ऐसे वस्त्र पहनती है या मात्र अपनी खुशी के लिए पहनती है।यहाँ यह बात कहना चाहूँगा कि यह बात नर-नारी दोनों पर समान रूप से लागू होती है।इस विषय पर खोज होनी चाहिए।
दूसरी टिप्पणी दिनेशराय द्विवेदी जी ने की है। उन से कहना चाहूँगा कि मैनें यह नही कहा कि शास्त्री जी ने जो कहा वह गलत है।बल्कि उन का लेख पढ़ कर ही मुझे इस विषय पर कुछ कहनें का मौका मिला है
आप ने सही कहा कि "लोगों को विचार करने दीजिए इस विषय पर। कोई निष्कर्ष शायद निकट भविष्य मे नहीं निकल पाए। लेकिन इस विचार-विमर्श से मन में छुपे विचार तो सामने आएँगे। शायद ये कोई रास्ता कभी दिखा सकें।" मै आप से पूरी तरह सहमत हूँ।
तीसरी टिप्पणी सतीश सक्सेना जी की है।उन्होनें कहा है कि-"हकीक़त में हमारा नंगपन, लोलुपता इस प्रकार के लेखों से बाहर आ रही है , कई ब्लाग ऐसे चल रहे हैं जिनमे स्त्री प्रसंग और संसर्ग चर्चा के बहाने ढूंढे जा रहे हैं ! और कड़वी सच्चाई यह भी है की ऐसे लेख पढने वालों की भीड़ कम नहीं है ! हिन्दी ब्लाग्स अभी शैशव अवस्था में है, लोग लिखते समय यह नही सोच पा रहे की लेखन का अर्थ क्या है , यह नही देख पा रहे की उनके इस प्रकार के लेखन के साथ साथ उनका चरित्र भी अमर हो जायेगा ! और उनके इसी चरित्र के साथ, उनके परिवार के संस्कार जुडेंगे ! जिसमें उतना ही स्थान महिलाओं और लड़कियों का है जितना पुरुषों का ! एक दिन यह दंभ और चरित्र सारे घर का चरित्र बन जाएगा ! ईश्वर सद्बुद्धि दे !"
मुझे लगता है कि सतीश जी इस विषय से भागना चाहते हैं।लेकिन शायद वह यह नही जानते कि जब हम चलते हैं तो रास्तों में पहाड़,नदीया, खाईयां सभी से हमें सामना करना ही पड़ता है। ऐसे मे अपना रास्ता बदलते रहें तो हम कहीं भी नही पहुँच पाएगें।
सभी टिप्पणी करने वालों का धन्यवाद।

Wednesday, September 3, 2008

मन नंगा तो हर नारी से पंगा

सदा से पढते आ रहें हैं कि जब भी कोई महार्षि तप करने बैठते थे तो कोई ना कोई अप्सरा आ कर उन महात्मा महा मुनि का तप भंग करने के लिए नृत्य द्वारा चलाए गए कामुक कामबाणों से उनके तप को भंग कर देती थी।कहते हैं तब वह तपस्वी उस अप्सरा को श्राप दे दिया करते थे।इन बातों को पढ़ पढ़ कर आज पुरूष भी ऐसी सोच रखने लगे हैं।क्यूँ कि आज ही मैने एक लेख पढा था। आपने भी जरूर पढ़ा होगा नारीवादी महिलाएं ? आज इसे पढ कर मुझे पौराणिक कथाएं याद हो आई। लगता है पुरूषों की सोच आज भी वही है जो तब हुआ करती थी। यह बात सभी पर लागू नही होती, बहुतों ने समय के साथ-साथ अपनी सोच को भी बदला है।लेकिन फिर भी अधिकतर अपनी सोच को नही बदल पाए हैं। हम मे से अधिकतर पुरूष निष्पक्षता से विचार नही कर पाते हैं।इसी लिए हमे हमेशा दूसरों में दोष देखनें की आदत हो जाती है। वैसे भी मानव स्वाभाव है कि वह दूसरो की कमजोरियों को जल्दी पकड़ लेता है लेकिन अपनी कमजोरिया उसे नजर नही आती। यह बात दोनों पर लागू होती है। यदि आप किसी नारी को अर्धनग्न देख कर कामातुर हो जाते हैं तो इस में उस नारी का क्या दोष है? हमारे अंदर नग्नता का प्रभाव तभी पड़ता है जब हमारी सोच ऐसी होती है। लेकिन यहाँ मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है कि आखिर नारीयां ऐसे वस्त्र क्यूँ पहनती हैं? इस प्रश्न का उत्तर नारीयां ही दे सकती हैं। बहुत पहले किसी काजी साहब ने शायद किसी चैनल पर कहा था की यदि गोश्त को खुला छोड़ दिया जाए तो बिल्लीयां तो उस पर झपटेगी। उस समय भी मैं काजी साहब से यह पूछना चाहता था कि आखिर बिल्लियां इतनी भूखी क्यों होती है कि उन्हें जहाँ भी गोश्त दिखता है वह उस पर झपट पड़ती हैं? क्या उनका पेट कभी भरा हुआ नही होता?

कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारा जन्म सैक्स के कारण से होता है इसी लिए हम इसे कभी छोड़ नही पाते या यूँ कहूँ-नियंत्रण नही रख पाते? क्या इसी कारण नर में यह कामुकता स्वाभाविक रूप से सदा मौजूद रहती है। ्मैनें कही पढ़ा था कि नारीयों की कामुकता तो माँ बननें के बाद विसर्जित हो जाती है ।लेकिन पुरुषों को यह सोभाग्य प्राप्त नही हो सकता।कही इसी कारण से तो पुरूष अपनी कामुकता को नियंत्रण रखनें में असमर्थ होते हैं? शायद यही कारण होगा ऐसा मुझे लगता है।आप इस विषय पर क्या सोचते हैं मैं नही जानता। यहाँ मैनें वही लिखा है जो मुझे सही लगा।हो सकता है मेरी सोच भी गलत हो......लेकिन आज हम सभी जिस दिशा में बढ़ रहे हैं। वहाँ हमें उन कुछ पुरूषों की मानसिकता को बदलनें के लिए कुछ तो करना होगा। वर्ना आनें वाले समय में समाजिक मुल्य एक कोड़ी का भी नही रहेगा।

Tuesday, September 2, 2008

उन्हें अभी नींद से मत उठाओ

हे बाढ़!
तुम उन के लिए कितनी सुन्दर हो,
जिन्हें तेरे आनें से,
राहत देनें के नाम पर,
अपनें घर भरनें के मौके मिलते हैं।
उन के लिए कितनी बुरी हो,
जिन्हें राहत के नाम पर धोखें मिलते हैं।
तुम इसी तरह आओ
इस देश को बहाओ
कुर्सियों पर बैठे हैं मरे हुए लोग।
उन्हें अभी नींद से मत उठाओ।
उन की नीदं तो तभी टूटेगी
जब राहत कोष से,
राहत की मोटी रकम उन के घर पहुँचेगी।