Saturday, December 10, 2011

काश! हम बच्चो जैसे होते.....



जब  मन के भाव शुन्य हो जाते हैं तो लगता है कि अब कुछ भी तो नही हैं इस जीवन के रास्ते मे। मेरे साथ ऐसा अक्सर होता ही रहता है। समझ नही पाता कैसे उस से बाहर निकलूँ ? 
 अपने से कोई कितना लड़ सकता है...............अपने से कोई कैसे जीत सकता है ? बार-बार हार का मुँह देखना पड़ता है। यदि मन पहले ही कुछ कर लेता तो ये नौंबत ही क्यूँ आती। बेकार की जिन्दगी जीने से तो अच्छा है बैठ कर हरि भजन करूँ। सोचता हूँ हरि भजन करने से भी यदि कुछ लाभ ना हुआ तो क्या करूँगा ?
..........मैं ये सब लिख रहा था और मेरा भतीजा भी इसे पढ़ रहा था। वह कहता है-
" फिर एक काम करो ताऊजी..!!" 
मैनें पूछा-" क्या काम करूँ?"
वह बोला-" भंगड़ा पाओ!!"


पता नही उसके इतना कहते ही शुन्यता कहाँ गुम हो गई। सोचता हूँ  मेरी गंभीरता और मेरे विचारों से बेहतर तो बच्चों के बालसुलभ  और मस्ती भरे उत्तर होते हैं। क्या हम वापिस बच्चे नही बन सकते ??