Monday, March 29, 2010

बेमतब की बातें...

बेमतलब बोलता बच्चा
कभी गाता है...
कभी नाचता है..
कभी अध्यापक बनकर
उन बालको को पढ़ाता है...
जो वहाँ हैं ही नही...

कई बार उस से खींज कर
उसके इस बेमतल के 
शोर और नाच के कारण
उस पर चिल्लाता हूँ.....
वह तो दोड़ जाता है...
लेकिन  उसकी जगह
हर बार अपने को पाता हूँ।

पता नही मै अपने को
ऐसे क्यूँ सताता हूँ।
जबकि जानता हूँ-
मै भी उसी बच्चे की तरह गाता हूँ।
अपना गीत खुद को ही सुनाता हूँ।

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गलत और सही की परिभाषा मे
किस विचार को बाँधा जा सकता है?
क्योकि हरेक की परिभाषा अलग होती है...
इसी लिए इंसानियत रोती है।

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किसी ने फल खा कर
उसका छिलका सड़क पर डाल दिया।
अच्छा हुआ गरीब ने उसे खा लिया..
और एक हादसा टाल दिया।

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बड़े नाम वाले की 
बेमतब की बात भी 
बड़ी हो जाती है।
भले ही उसको 
समझ आए या ना आए-
आम आदमी को 
बहुत भाती है।

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Monday, March 22, 2010

मन हमारा पंछी....

                                                                                                    (गुगुल से साभार)


मन हमारा पंछी बन कर उड़ रहा आकाश में...
ठौर यहाँ मिल ना सके, मिल जाएगी इतिहास में।

सोचता है कौन, जीवन को समर, कोई यहाँ...
चल रहे हैं हम सभी,भीड के ही साथ में।


जी रहे हैं, या की जीना, आज हम को पड़ रहा...
आज जीवन भी ये अपना, रहा नही है हाथ में।


सीख देते हैं सभी, हिम्मत कभी ना हारना....
हिम्मत कहाँ से लाये हम,बिकती नही बाजार में।


जो मरा हो पहले से उसको कभी ना मारना...
लेकिन मरता है यही, देखो जरा इतिहास में।




सच ही जीता है सदा,सुनते आये हैं इतिहास मे..
सोचता हूँ ,क्या धरा है, आज इस बकवास में।

मन हमारा पंछी बन कर उड़ रहा आकाश में...
ठौर यहाँ मिल ना सके, मिल जाएगी इतिहास में।

Monday, March 15, 2010

मन की तरंगे......

 


कब तक कोई बाहर ही देखता रहे...समझ मे नही आता कि बाहर ऐसा क्या है ?..... जिस का मोह हम से छूटता ही नही। कितना तो भाग चुके इन सब के पीछे.....कितनी सफलताएं असफलताएं हाथ आई हैं, ऐसा लगता है हमें ।......लेकिन जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो सिवा खालीपन के कुछ नजर ही नही आता। फिर हमारी यह दोड़ आखिर किस के लिए है ?.....लेकिन क्या कोई बेमतलब इस तरह अपने को थकाता है...जरूर ही हम कुछ तलाश रहे हैं अपने जीवन मे.....और हमारी यह तलाश भी अलग अलग नही है......सभी को सिर्फ एक ही तलाश है......यह बात अलग है कि हम सभी उसे अलग अलग ढूंढ रहे है..। कोई उसे धन मे ढूंढ रहा है तो कोई यश में....कोई धर्म मे ढूंढ रहा है ...कोई पद में ढूंढ रहा है....तो कोई विज्ञान मे..। इसी खोज के कारण आज हम चलते-चलते कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं...और वह है ....कि हमारी पहुँच मे कभी आता ही नही..। हम  सदा सोचते हैं कि हम जब भी सफल होगे उस को पा जाएगे...और इस सफलता को पाने के लिए हमे जो भी अच्छा बुरा रास्ता अपनाना पड़े ....उस से हमे कोई फर्क नही पड़ता। हमारी बला से कोई हमारे इस प्रयास के कारण मरता है तो मरे.....दुखी होता है तो होता रहे....। इस बारे मे सोचने के लिए हमे फुर्सत कहाँ है....?? हमे तो बस उसे पाना है......जैसे भी हो....। हमारी तलाश तब तक बंद भी नही हो सकती।...यदि हम चाहे भी कि अब उसकी खोज नही करेगे तो भी....हम ज्यादा देर तक खाली नही बैठ सकते .......खाली बैठे रहने से हमारे भीतर.....तरह तरह की कल्पनाएं जन्म लेने लगती हैं......जो हमे डराती हैं.....लुभाती हैं.....और फिर चलते रहने को मजबूर कर देती हैं.....। वैसे भी हमारी सोच कभी बंद तो होती ही नही.....हम कुछ भी ना कर रहे हो.....हमारा सोचना चलता ही रहता है.....। यदि हम चाहे भी तो ठहर नही सकते.....क्योकि हमारे ठहरने से (जबकि हम कभी ठहरते नही लेकिन मान लेते हैं कि हम अब ठहर गए हैं)  समय तो ठहरता नही ...। समय तो हमे अपने साथ घसीटता हुआ लिए जा रहा है.... और तब तक हमे घसीटता रहेगा जब तक हमे हमारे होने का एहसास हमारे भीतर जिन्दा है। इसी एहसास के कारण तो आज मैं अपने से ही बतियाने लगा हूँ.....। वैसे हम सभी जब भी कुछ लिखते हैं तो दूसरे का एह्सास हमारे भीतर रहता ही है....शायद तभी तो हम लिख पाते हैं.....। लेकिन आज मन किया कि अपने लिए लिखूँ.....। बहुत भागता रहा हूँ अपने से.....अपने से बचने के लिए ही तो दीन दुनिया की बातें करता रहता हूँ.....। लेकिन आज ठान लिआ है कि यह जान कर रहूँगा कि आखिर मैं चाहता क्या हूँ.....आखिर क्यों मुझे लगता है कि मेरे भीतर कुछ ऐसा जरूर है जो मुझे हर पल यह एहसास दिलाता रहता है कि कुछ ऐसा जरूर है जो मैं चाहता हूँ, पर उस तक कभी पहुँच नही पाता...या कभी उस की झलक मुझे मिलती भी है तो मैं समझते हुए भी उसे समझ क्युँ नही पाता..। कई बार मुझे ऐसा लगता है कि यह सब सिर्फ मेरे साथ ही होता है.....लेकिन जब अपने आस पास देखता हुँ तो लगता हैं नही....ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नही हो रहा....दूसरे भी शायद इसी अवस्था से गुजरते होगे...या गुजर रहे हैं...। यह हो सकता है कि उन्हें अभी इस बात कि ओर ध्यान ही ना गया हो कि वे क्या चाहते हैं....जब कि तलाश उन की भी यही है...।

अपने जीवन में कभी एक को चुनने की स्वतंत्रता नही मिलती हमको। क्योंकि  हमारे सामने हमेशा दो विकल्प रहते हैं....हमारे जीवन मे एक हमारी मजबूरी के कारण होता है और दूसरा हमारी मर्जी का तो होता है लेकिन वह हमारी परिस्थितियों पर आधारित होता है...। अब क्या किया जा सकता है जब पेट साथ मे हो तो.....उस के लिए भी तो कुछ चाहिए....ताकि हम भी चलने लायक बने रह सकें..। वैसे देखा जाए तो यहीं से हमारा भटकाव शुरू होता है....। यहीं से हम उस से दूर होने लगते हैं जिसे हम ना जानते हुए भी सदा चाहते रहते हैं।....यहीं से यह दूरी बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ जाती है कि हमे लगने लगता है कि अब शायद ही हमारा कभी लौटना हो सकेगा...शायद ही हम कभी उस तक पहुँच पाएगें। लेकिन नही....ऐसा कुछ भी नही है......हमे भले ही ऐसा लगता हो  कि हम बहुत दूर निकल आएं हैं लेकिन वह कभी भी हमसे दूर नही होता। सिर्फ हमारा भ्रम ही हमें ऐसा महसूस कराता रहता है।


Monday, March 8, 2010

ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है......



ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है
जिसने ये देश बाँटा वो इंसान बुरा है।


गाँधी गोली खा मरे बहुत बुरा हुआ
सुभाष लापता हुए बहुत बुरा हुआ
फायदा किसे हुआ जानता है रब..
देश ना समझा ये बहुत बुरा हुआ।
चुप रहके सब देखना, मान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है


सोचता हूँ सुभाष गर देश मे होते,
देशवासी आतंक से आज ना रोते।
बाँट ना पाता कोई टुकड़ो मे यूँ देश,
सरदार गर हमारे आज बीच मे होते।
निजि फर्ज से मुँह फैरना जान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है।


सुनता गर  गाँधी की कोई, देश ना बँटता।
चीन कभी सीमा पर घुसपैठ ना करता।
अमरीका दादा बन सबको सीख ना देता।
नेताओ की नैतिकता कोई छीन ना लेता।
दब के किसी से, छोड़ना स्वाभिमान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है


भ्रष्टाचार के कारण मेरा देश ना रोता।
मँहगाई की आग देख,  नेता ना सोता।
कुर्सी बचाने के लिए दुश्मन को कहे दोस्त,
देश मे अपने चलन ये, आज ना होता।
ऐसे नेताओ को मिले जब, मान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है                                


                                                                     (क्रमश:)

Monday, March 1, 2010

चंद मुक्तक

ना पूछो, वक्त ने क्या क्या सितम ढहाए हैं।
अपनो ने जो रास्ते हमको अब तक दिखाए हैं
समझ आता नही जाए कहां कोई बता दो यार,
यहां हर मोड़ पर हमने  देखे बस चौराहे हैं।


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हरिक चौराहे पर अब भीड़ दिखती है।
वह ऐसा  मुझे हर खत मे लिखती है।
मेरा बाहर जाना इतना गजब ढहाएगा-
यहां हरिक चीज लगता है, बिकती है।


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