Saturday, July 12, 2008

अपरिवर्तन

कुछ भी तो नही बदला!
सच्चा आदमी आज भी रोता है।

सुनते थे...समय बदल देता है सभी कुछ,
जो आज हो रहा है -
वह तब भी तो होता था।
सच्चा आदमी तब भी तो रोता था।

आज भी वह रेंग रहा है कीड़ा बना।
अपने ही दुखों से सना।
अपनी ही परछाईयों से भयभीत।
अपने को खुद ही ढाँढस बंधाता है।
अपनी इच्छाओं को मार कर खाता है।


अपने आस-पास बिखरे सपनें,
हमारी कल्पनाओं के पंख,
मंदिरों में बजते शंख,
सभी तो चल रहा है,
जैसे हमेशा चलता था।
सुनहरा सपना-
जैसे हमारे भीतर पलता था।

सपनों को पूरा करनें की चाहत में,
हमेशा की तरह
आदमी अपनें को खोता है।

कुछ भी तो नही बदला!

सच्चा आदमी आज भी रोता है।

2 comments:

  1. आप की रचना बहुत ही सुन्दर हे, लेकिन एक सच्चा आदमी कभी नही रोता, क्योकि अगर वह सच्चा हे तो अपने असुलो के कारण,वरना वह भी बेईमानी ओर भर्षट हो कर सुखी बन सकता हे, लेकिन उसे अपनी सच्चाई पसन्द हे दुखो के साथ ओर वह इसी मे खुश हे,
    भाई आप इतने दिनो बाद आये, कहां गायव हो जाते हो, मे तो बहुत इन्तजार करता हु आप की,इतनी छुट्टिया नही लेनी चाहिये

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  2. जुदाई में उनकी दिल, ज़ार-ज़ार रोता।
    गर दिलमें उनके, थोड़ा-सा प्यार होता।
    कहां गायव हो जाते हो . kafi arse baad apki achchi rachana adhane mili. badhai ji.

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