Monday, March 15, 2010

मन की तरंगे......

 


कब तक कोई बाहर ही देखता रहे...समझ मे नही आता कि बाहर ऐसा क्या है ?..... जिस का मोह हम से छूटता ही नही। कितना तो भाग चुके इन सब के पीछे.....कितनी सफलताएं असफलताएं हाथ आई हैं, ऐसा लगता है हमें ।......लेकिन जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो सिवा खालीपन के कुछ नजर ही नही आता। फिर हमारी यह दोड़ आखिर किस के लिए है ?.....लेकिन क्या कोई बेमतलब इस तरह अपने को थकाता है...जरूर ही हम कुछ तलाश रहे हैं अपने जीवन मे.....और हमारी यह तलाश भी अलग अलग नही है......सभी को सिर्फ एक ही तलाश है......यह बात अलग है कि हम सभी उसे अलग अलग ढूंढ रहे है..। कोई उसे धन मे ढूंढ रहा है तो कोई यश में....कोई धर्म मे ढूंढ रहा है ...कोई पद में ढूंढ रहा है....तो कोई विज्ञान मे..। इसी खोज के कारण आज हम चलते-चलते कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं...और वह है ....कि हमारी पहुँच मे कभी आता ही नही..। हम  सदा सोचते हैं कि हम जब भी सफल होगे उस को पा जाएगे...और इस सफलता को पाने के लिए हमे जो भी अच्छा बुरा रास्ता अपनाना पड़े ....उस से हमे कोई फर्क नही पड़ता। हमारी बला से कोई हमारे इस प्रयास के कारण मरता है तो मरे.....दुखी होता है तो होता रहे....। इस बारे मे सोचने के लिए हमे फुर्सत कहाँ है....?? हमे तो बस उसे पाना है......जैसे भी हो....। हमारी तलाश तब तक बंद भी नही हो सकती।...यदि हम चाहे भी कि अब उसकी खोज नही करेगे तो भी....हम ज्यादा देर तक खाली नही बैठ सकते .......खाली बैठे रहने से हमारे भीतर.....तरह तरह की कल्पनाएं जन्म लेने लगती हैं......जो हमे डराती हैं.....लुभाती हैं.....और फिर चलते रहने को मजबूर कर देती हैं.....। वैसे भी हमारी सोच कभी बंद तो होती ही नही.....हम कुछ भी ना कर रहे हो.....हमारा सोचना चलता ही रहता है.....। यदि हम चाहे भी तो ठहर नही सकते.....क्योकि हमारे ठहरने से (जबकि हम कभी ठहरते नही लेकिन मान लेते हैं कि हम अब ठहर गए हैं)  समय तो ठहरता नही ...। समय तो हमे अपने साथ घसीटता हुआ लिए जा रहा है.... और तब तक हमे घसीटता रहेगा जब तक हमे हमारे होने का एहसास हमारे भीतर जिन्दा है। इसी एहसास के कारण तो आज मैं अपने से ही बतियाने लगा हूँ.....। वैसे हम सभी जब भी कुछ लिखते हैं तो दूसरे का एह्सास हमारे भीतर रहता ही है....शायद तभी तो हम लिख पाते हैं.....। लेकिन आज मन किया कि अपने लिए लिखूँ.....। बहुत भागता रहा हूँ अपने से.....अपने से बचने के लिए ही तो दीन दुनिया की बातें करता रहता हूँ.....। लेकिन आज ठान लिआ है कि यह जान कर रहूँगा कि आखिर मैं चाहता क्या हूँ.....आखिर क्यों मुझे लगता है कि मेरे भीतर कुछ ऐसा जरूर है जो मुझे हर पल यह एहसास दिलाता रहता है कि कुछ ऐसा जरूर है जो मैं चाहता हूँ, पर उस तक कभी पहुँच नही पाता...या कभी उस की झलक मुझे मिलती भी है तो मैं समझते हुए भी उसे समझ क्युँ नही पाता..। कई बार मुझे ऐसा लगता है कि यह सब सिर्फ मेरे साथ ही होता है.....लेकिन जब अपने आस पास देखता हुँ तो लगता हैं नही....ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नही हो रहा....दूसरे भी शायद इसी अवस्था से गुजरते होगे...या गुजर रहे हैं...। यह हो सकता है कि उन्हें अभी इस बात कि ओर ध्यान ही ना गया हो कि वे क्या चाहते हैं....जब कि तलाश उन की भी यही है...।

अपने जीवन में कभी एक को चुनने की स्वतंत्रता नही मिलती हमको। क्योंकि  हमारे सामने हमेशा दो विकल्प रहते हैं....हमारे जीवन मे एक हमारी मजबूरी के कारण होता है और दूसरा हमारी मर्जी का तो होता है लेकिन वह हमारी परिस्थितियों पर आधारित होता है...। अब क्या किया जा सकता है जब पेट साथ मे हो तो.....उस के लिए भी तो कुछ चाहिए....ताकि हम भी चलने लायक बने रह सकें..। वैसे देखा जाए तो यहीं से हमारा भटकाव शुरू होता है....। यहीं से हम उस से दूर होने लगते हैं जिसे हम ना जानते हुए भी सदा चाहते रहते हैं।....यहीं से यह दूरी बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ जाती है कि हमे लगने लगता है कि अब शायद ही हमारा कभी लौटना हो सकेगा...शायद ही हम कभी उस तक पहुँच पाएगें। लेकिन नही....ऐसा कुछ भी नही है......हमे भले ही ऐसा लगता हो  कि हम बहुत दूर निकल आएं हैं लेकिन वह कभी भी हमसे दूर नही होता। सिर्फ हमारा भ्रम ही हमें ऐसा महसूस कराता रहता है।


13 comments:

  1. आपने इस पोस्ट को बहुत ही करीने से सजाया है!

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  2. मेरे पास शब्द नहीं हैं!!!!
    tareef ke liyee

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  3. आदरणीय बाली जी!
    बहुत ही सुन्दर आलेख है!
    पढ़कर अच्छा लगा!

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  4. समझ नहीं आता कि बाहर ऐसा क्या है..इसी में तो हम जिन्दगी गंवाये दे रहे हैं..बहुत शानदार विचारणीय आलेख.

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  5. बाहर तो सब मोह है माया है जबकि भीतर ही शांति है आनन्द है....."
    प्रनव सक्सैना
    amitraghat.blogspot.com

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  6. बेहद ही सुन्दर आलेख....
    regards

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  7. sab swyam ko paane ki chah mein bhatak rahe hain apne astitva kikhoj mein hi bhatak rahe hain magar us disha mein kadam nhi uthana chahte kyunki "main" ko markar hi astitva bodh hota hai aur ye "main" hi hamara sabse bada shatru hai.

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  8. परमजीत जी बहुत गूढ़ बातें कह गए आप तो, पर यही सच है कहने को तो मैं भी शांति चाहती हूँ कितनी आसानी से कह दिया मैंने पर उसको पाने के लिए क्या करना होगा वो ही पता नहीं चलता एक चीज़ से शान्ति मिलती है तो दूसरी उसही में अड़चन बन जाती हैऔर शयद इसी उधेड़बुन में जिंदगी हाथ से निकलती जा रही है आभार

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  9. ....प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!

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  10. sach me ajeeb uljhan hai jindgi
    jane kya chahti hai
    jane kya milta hai
    khoobsurt shabdo ka behtreen prayog.
    prawahmay bhasha me prabhashali rachana.

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  11. मो को कहाँ ढूंढें रे बन्दे,
    में तो तेरे पास में!
    ना में कशी, ना में मथुरा,
    ना काबा, कैलास में!
    बाली जी, विचारोत्तेजक लेख!

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