Saturday, February 8, 2014

शब्द यात्रा



अपने 
कहे हुए 
शब्द
फिर लौटते हैं
जैसे पंछी साँझ ढले
लौटते हैं 

अपने नीड़ों की ओर।
सोचता हूँ...
काश! 

मुझे मौन रहना आता
मैं जहाँ होता..
वहीं .....

 मेरा बसेरा बन जाता।
तब शायद मैं जान पाता
उस सत्य को..
जो होते हुए भी
किसी को ..

नजर नही आता।
पाना सभी चाहते हैं..
लेकिन ..

जो पाता है
उसे कभी नही भाता।

्योंकि-
सत्य को जानकर भी
स्वयं को नही जान पाता। 


5 comments:

आप द्वारा की गई टिप्पणीयां आप के ब्लोग पर पहुँचनें में मदद करती हैं और आप के द्वारा की गई टिप्पणी मेरा मार्गदर्शन करती है।अत: अपनी प्रतिक्रिया अवश्य टिप्पणी के रूप में दें।