Wednesday, May 20, 2009

मुक्तक माला - १७


जलेगी शंमा जो परवाने भी आएंगें,
आपके लिए साकी हम भी संग गुनगुनाएगें
रात कितनी है बाकि किसी को खबर नही-
सहर होने तलक शायद ही ठहर पाएंगें ।


जिस राह पर चले हम, उसपर वीरांनियाँ हैं,
यहाँ हरिक की, अपनी-अपनी कहानियाँ हैं।
हसरत थी इस दिलको, कोइ रह्बर मिलेगा-
इसी ख्वाइशमें यहाँ गई कितनी जवानियाँ हैं
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11 comments:

  1. सुन्दर मुक्तक..दोनों ही!!

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  2. paramjeet jee, sundar muktak ke liye badhai....

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  3. परमजीत जी शुक्रिया इन सुन्दर मुक्तकओ के लिए ...

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  4. क्या बात है बाली साहेब दोनों मुक्तक लाजवाब...बेहतरीन....
    नीरज

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  5. क्या बात है.........दोनों ही लाजवाब हैं ...........जोरदार रचनाएं

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  6. आपने शमा जलाई और देखिये परवाने आ गए.

    साभार
    हमसफ़र यादों का.......

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  7. ... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति ... बधाईयाँ ।

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  8. aarnya baali saheb

    kya baat kahi hai aapne dono muktakh , bus kaamal ke hai ..

    meri dil se badhai sweekar kariyenga

    vijay
    www.poemsofvijay.blogspot.com

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  9. सहर होने तक ठहर के देखो.
    रहबर मिलेगा तुम्हारे इंतज़ार में.

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  10. वाह वाह जनाब छु लिए.
    दिल के एहसासों को..
    अभी तक तो महसूस करते थे लेकिन आज छु लिए.....
    अक्षय-मन

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