Wednesday, September 23, 2009

तेरा खुदा जो कह रहा...


तेरा खुदा जो कह रहा, मेरा खुदा नही मानता।
आदमी को आदमी, कोई नही, यहाँ मानता।

रूतबों औ’ धन से यहाँ, आदमी का मोल है,
आदमी का दिल यहाँ कोई नही पहचानता।

अपनी ही धुन में यहाँ ,चल रहे सब बेखबर,
कितनें गुल पैरों तले, कुचलें, नहीं कोई जानता।

देख सुन खामोंश है दुनिया बनानें वाला भी,
आज दुनिया को परमजीत वो नही पहचानता।

18 comments:

  1. आदमी को आदमी यहाँ कोई नहीं मानता ...आदमी बचे ही कितने हैं ...सब के सब आदमखोर हो गए हैं ..
    अच्छी कविता ...शुभकामनायें ..!!

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  2. अपनी ही धुन में चल रहे सब बेखबर.....
    सुंदर पंक्‍ति‍यॉ।

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  3. परमजीत जी,
    आठ पंक्तियों के चौंसठ शब्दों में आपने बहुत ही उम्दा काम कर दिखाया है...........

    तेरा से आरम्भ हो कर पहचानता तक की यात्रा आपने कराई..........

    ज़िन्दगी में और है ही क्या जानने के लिए ?

    जिसने तेरा का मर्म पहचान लिया ......उसका मेरा सदा को मिट गया ..और मेरा ही मिट गया तो मेरा दर्द भी मिट ही गया.........

    बधाई उम्दा कविता के लिए !

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  4. आज आदमी ही आदमी को भूल गये है..
    बहुत बढ़िया ग़ज़ल...बधाई..

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  5. sach me aadmi ka koi mol nahi......bas bhautik suvidhaaon ka lobh hai

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  6. परमजीत जी
    बिल्कुल सही कहा आपने आदमी का कोई मोल नही है/बेहद गहरी अभिव्यक्ति!

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  7. बहुत ही सुन्‍दर सच्‍चाई को बयां करती यह रचना, आभार

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  8. आदमी को कोई आदमी नहीं मानता ! सच है.

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  9. बहुत सुंदर लिखा आप ने आदमी को आदमी नही मानता,
    धन्यवाद

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  10. एक बार फिर....... बेहतरीन प्रस्तुति!

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  11. बहुत ही बढ़िया
    आदमी को आदमी कोई यहां नहीं मानता...
    बेहतरीन।

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  12. आदमी ने सब कुछ बांट लिये हैं - अपने अपने खुदा भी बांटे सबसे पहले!

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  13. आदमी की पहचान नहीं, आदमी का मोल नहीं,
    होए कुछ भी, रो ले पर मुहं से निकले बोल नहीं

    ऐसी ही हो गयी है अब आम आदमी की जिंदगी. बहुत कुछ कह गए आप अपनी इस रचना के माध्यम से.

    बधाई.

    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

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  14. bahut hi sunder likha hai
    aapne



    sanjay
    haryana

    http://sanjaybhaskar.blogspot,com

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